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________________ 76 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| गई बात पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता। जो केवली हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, उनके द्वारा कभी भूल हो ही नहीं सकती। अतः उनके द्वारा कथित सभी बातें विश्वसनीय हैं। यही मार्ग दुःखों से हटाने वाला है। धर्म-साधना करने वाले ही सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होते हैं, सभी दुःखों का अन्त करते हैं। इस श्रमणसूत्र के पाँचवें पाठ में ८ प्रतिज्ञाएँ ली गई हैं। १. असंयम से निवृत्त होना। क्योंकि परिज्ञा दो प्रकार की है। ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा। ज्ञ परिज्ञा के द्वारा असंयम के स्वरूप को जानना और प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा असंयम का त्याग करना, संयम को स्वीकार करना। २. अब्रह्म को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से अब्रह्मचर्य से अलग हटना, ब्रह्मचर्य स्वीकारना। ३. अकृत्य को ज्ञ परिज्ञा से जानना तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से अकृत्य का पच्चक्खान करना, कृत्य को स्वीकारना। ४. अज्ञान के सही स्वरूप को जानना और प्रत्याख्यान परिज्ञा से ज्ञान को स्वीकारना। ५. अक्रिया के स्वरूप को ज्ञ परिज्ञा से जानना, प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागना और क्रिया को स्वीकारना। ६. मिथ्यात्व को जानना और त्यागना एवं सम्यक्त्व को स्वीकार करना। ७. अबोधि को ज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागना एवं बोधि को स्वीकार करना। ८. अमार्ग को ज्ञ परिज्ञा से जानकर त्यागना और मार्ग को स्वीकार करना। ___ ये जो आठ प्रतिज्ञाएँ साधक स्वीकार करता है, उनका उसे स्मरण है अथवा नहीं। किनका प्रतिक्रमण कर लिया है और किनका नहीं किया है, इस प्रकार स्मरण करके सम्बद्ध अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता श्रमण का चिन्तन * मैं श्रमण हूँ। मैंने साधना के लिए भूतकाल में भी परिश्रम किया था। वर्तमान में भी परिश्रम कर रहा हूँ। ___ भविष्यकाल में भी करूंगा। * मैं संयत हूँ। संयम का सम्यक् रीति से पालन करने वाला हूँ। * मैं विरत हूँ यानी सब प्रकार के सावद्य पापों से अलग हटने वाला हूँ। * भूतकाल में पाप किया है, तो उस पाप की गुरु साक्षी से गर्दा करता हूँ और आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ। वर्तमान एवं भविष्यकाल के लिए मैं प्रतिज्ञाबद्ध होता हूँ कि आगे पाप नहीं करूंगा, ऐसे प्रत्याख्यान ग्रहण करता हूँ। (सच्चा साधक वही माना जाता है जो तीनों कालों में संभल-संभल कर चलता है। पाप पंक को धोकर जीवन रूपी चदरिया को निर्मल बनाता है।) * मैं निदान रहित हूँ। निदान का अर्थ आसक्ति है। भोगासक्ति को हम जहरीला घातक फोड़ा कह सकते हैं जैसे फोड़ा अन्दर ही अन्दर शरीर को सड़ा कर खोखला कर देता है, वैसे ही आसक्ति साधक जीवन को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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