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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 करने पर श्रमण - श्रमणी को उनका प्रतिक्रमण करना चाहिए। इसी प्रकार १३ क्रिया, १७ प्रकार का असंयम, १८ प्रकार का अब्रह्म, २० असमाधि दोष, २१ प्रकार का सबल दोष, २९ पाप श्रुत, ३० महामोहनीय कर्मबन्ध के स्थान, ३३ आशातनाएँ हेय हैं, इनका आचरण हो गया हो तो प्रतिक्रमण द्वारा शोधन हो जाता है । ९ ब्रह्मचर्य गुप्ति, १० श्रमण धर्म, १२ प्रतिमाओं का यथाशक्ति पालन न करना, श्रद्धान न करना, विपरीत प्ररूपणा करना अतिचार है । अतः इनका आचरण अभीष्ट है और इनके आचरण न कर पाने का प्रतिक्रमण किया जाता है। जिनवाणी १४ जीवों के भेद, १५ परमाधार्मिक देव, १६ सूत्रकृतांग के अध्ययन, १९ ज्ञाताधर्मकथांग के अध्ययन, २३ सूत्रकृतांग के अध्ययन, २४ देवता, पाँच महाव्रत की २५ भावनाएँ, दशाश्रुतस्कंध, वृहत्कल्प, व्यवहार सूत्र के २६ उद्देशन काल, २८ आचार प्रकल्प, ३१ सिद्धों के गुण, ये जानने योग्य हैं इन्हें भली प्रकार से नहीं जानने एवं अतिचार लगने का मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है । २२ परीषह जानने योग्य व जीतने योग्य हैं, इन्हें नहीं जीता है तो अतिचार है। साधुजी के २७ गुण हैं, उनका भलीभाँति पालन न करना अतिचार है। ३२ योग संग्रह में जो जानने योग्य हैं, उन्हें ठीक से न जानना, उपादेय को ग्रहण न करना तथा हेय को न छोड़ना ही अतिचार है, उसका प्रतिक्रमण किया जाता है। अरिहंतों की आशातना से लेकर ज्ञान के १४ अतिचार तक ३३ आशातना हो जाती है। उन ३३ आशातना के अतिचार का प्रतिक्रमण किया जाता है। यह प्रतिक्रमण का विराट् रूप है, इस चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक में बिन्दु में सिन्धु समाया हुआ है। ५. प्रतिज्ञा पाठ (निर्ग्रन्थ प्रवचन सूत्र ) श्रमण सूत्र का पाँचवाँ प्रतिज्ञा पाठ है। इस पाठ में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक सबको नमन किया गया है। जिस साधक को जैसी साधना करनी हो वह उसी की उपासना करता है । अर्थोपार्जन का इच्छुक लक्ष्मी की पूजा करता है । विद्योपार्जन करने का रसिक सरस्वती को मानता है तो जैन धर्म को मानने वाला ऋषभ देव से लेकर महावीर तक की स्तुति करता है। हमारे शासनपति महावीर हैं। महावीर को कौन नहीं जानता ? जब चारों ओर अज्ञान व हिंसा का ताण्डव नृत्य हो रहा था, तब भगवान् महावीर ने अहिंसा की दुन्दुभि बजाई थी । हजार धाराओं से करुण रस बरसाया था। उनकी वाणी निर्ग्रन्थ प्रवचन कहलाती है। उस पर साधक को श्रद्धा, प्रतीति व विश्वास करना चाहिए। धर्ममार्ग पर दृढता से स्थिर रहने पर ही जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सभी दुःखों का अन्त कर निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं। Jain Education International 75 जैन धर्म के अहिंसावाद, अनेकान्तवाद और कर्मवाद सिद्धान्त इतने प्रमाणिक हैं एवं सत्य की गहरी व मजबूत नींव पर टिके हुए हैं, उन्हें कोई झुठला नहीं सकते । वे सिद्धान्त सत्य हैं। छद्मस्थों के द्वारा बताई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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