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________________ | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| विराधना प्रतिक्रमण- चारित्र धर्म का निर्मल रीति से पालन करना आराधना है। सम्यक् रीति से पालन नहीं करना विराधना है। ये विराधनाएँ तीन हैं- ज्ञान, दर्शन व चारित्र की विराधना। इनकी विराधना के निराकरण हेतु मिच्छामि दुक्कड़ कर प्रतिक्रमण किया जाता है। गुप्ति प्रतिक्रमण- 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः।' मन, वचन, काया का जो प्रशस्त निग्रह है, वह गुप्ति है। प्रमादवश उनका आचरण करते दोष लगता है तो प्रतिक्रमण किया जाता है। कषाय एवं संज्ञा प्रतिक्रमण- जिनके द्वारा संसार की प्राप्ति हो वे चार कषायें हैं- क्रोध, मान, माया एवं लोभ। संज्ञा ४ हैं- आहार संज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रह संज्ञा। इन संज्ञाओं ये चेतना मोहनीय और असाता वेदनीय कर्म के उदय से विकारग्रस्त हो जाती है। ये हेय हैं, इनका प्रतिक्रमण किया जाता है। विकथा प्रतिक्रमण- जो आत्म-धर्म से विरुद्ध ले जाने का कार्य करती हैं वे ४ विकथाएँ हैं- स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा एवं राजकथा। जिस प्रकार कालसर्पिणी से दूर रहा जाता है वैसे ही इन विकथाओं से दूर रहना चाहिए। ध्यान प्रतिक्रमण- चार ध्यानों में दो ध्यान (आर्त्त एवं रौद्र) करने से तथा दो ध्यान (धर्म एवं शुक्ल) के न करने से अतिचार लगता है। अतः उनका प्रतिक्रमण किया जाता है। क्रिया प्रतिक्रमण- कर्मबन्ध कराने वाली चेष्टा क्रिया है। वे पाँच हैं- कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी। इनके अतिचार का प्रतिक्रमण किया जाता है। कामगुण प्रतिक्रमण- काम गुण ५ हैं - शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श। ये सभी हेय हैं। महाव्रत प्रतिक्रमण- सर्वप्राणातिपात से विरमण, सर्व मृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व मैथुन से विरमण एवं सर्व परिग्रह से विरमण, इन पाँच महाव्रतों में दोष लगने पर उनका प्रतिक्रमण किया जाता समिति प्रतिक्रमण- ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदानभाण्ड-मात्र निक्षेपण समिति एवं उच्चारप्रस्रवणखेलजल्लपरिष्ठापनिका समिति। इन पाँच समितियों के पालन में दोष लगने का प्रतिक्रमण करना चाहिए। जीव-निकाय प्रतिक्रमण- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय । इन षड् जीवनिकाय की हिंसा विषयक अतिचार लगने पर उसका प्रतिक्रमण अपेक्षित है। लेश्या प्रतिक्रमण- कृष्ण लेश्या, नील लेश्या एवं कापोत लेश्या का आचरण करने पर तथा तेजोलेश्या, पद्म लेश्या एवं शुक्ल लेश्या का आचरण न करने पर प्रतिक्रमण अभीष्ट है। भय प्रतिक्रमण- इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, आजीविका भय, मरण भय एवं अपयश भय। इन सात प्रकार के भय सेवन का प्रतिक्रमण करना चाहिए। मद प्रतिक्रमण- जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद, लाभमद एवं ऐश्वर्य मद का आचरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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