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| 15,17 नवम्बर 2006||
जिनवाणी गौतम स्वामी के प्रश्न पर भगवान ने फरमाया - "कालपडिलेहणया णं भंते! जीवे किं जणयइ?, काल पडिलेहणया णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ।' काल की प्रतिलेखना करने से क्या फल मिलता है ? भगवान ने फरमायाज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है।
प्रमाद के वशवर्ती बनकर यदि चारों काल स्वाध्याय न की हो या उसमें असावधानी रखी हो तथा दोनों काल प्रतिलेखन न किया हो तो उसके शुद्धीकरण के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है।
जैन धर्म में ही नहीं, किन्तु भारतीय संस्कृति में स्वाध्याय का गौरवशाली महत्त्व है। भारतीय विद्यार्थी जब गुरुकुल से पढ़ लिखकर निकलता था, तब गुरु कहते थे- 'स्वाध्यायान्माप्रमदः।' स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करना। आज का विद्यार्थी भी बहुत पढ़ता है- कथा कहानियाँ, अश्लील गीत, उपन्यास आदि। जिनके पढ़ने से जीवन अपवित्र बनता है, विकार भड़कते हैं, ऐसा गन्दा साहित्य मत पढ़ो, पतन की ओर मत बढ़ो। पतन से बचने के लिए किसी महापुरुष के उच्चकोटि के आध्यात्मिक धर्मग्रन्थों को पढ़कर अपने आपको पापमुक्त बनावें।
भगवान महावीर ने तो १२ प्रकार के तपों में स्वाध्याय को आभ्यन्तर तपों में स्थान दिया। अज्ञानी व्यक्ति जिन कर्मों को करोड़ वर्ष में भी नहीं खपा पाता उन कर्मों को ज्ञानी स्वाध्याय के बल पर, मन, वचन काया के संयम के बल पर एक श्वास भर में क्षय कर डालता है। अतः हम स्वाध्याय करें। उसमें प्रमाद न करें। अगर किया हो तो उस अतिचार का प्रतिक्रमण से शुद्धीकरण शीघ्र कर लेना चाहिए। ४. ३३ बोल का पाठ असंयम का प्रतिक्रमण- जैसे समुद्र में अनेक तरंगे उठती हैं वैसे ही मनुष्य के मन में कामनाओं की अनेक लहरें ज्वार भाटा की तरह आती रहती हैं। शास्त्रकारों ने कहा- "इच्छा हु आगा-ससमा अणंतिया।" इच्छाएँ आकाश की तरह अनन्त हैं। द्रौपदी के चीर की तरह उनका पार नहीं है।
कामनाओं से आज तक किसी को सुख नहीं मिला। अगर सुखी बनना है तो कामनाओं से मुक्त होना होगा, इच्छाओं पर संयम करना पड़ेगा और असंयम से मुक्त होना होगा। वह असंयम एक प्रकार का है। संयम का पालन करते हुए भी प्रमादवश अगर असंयम हो गया तो उसका प्रतिक्रमण अवश्य करें। राग-द्वेष का प्रतिक्रमण- कर्म बन्धन के बीज राग द्वेष हैं। जीवन रूपी चदरिया को गन्दा बनाने का काम यही दोनों करते हैं। अतः साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट श्रमण साधक से प्रमादवशात् भूल हों तो प्रतिक्रमण कर शुद्ध हो जाना चाहिए। दण्ड प्रतिक्रमण- दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काया रूप तीन दंड हैं। शल्य एवं गर्व प्रतिक्रमण- जिनके कारण आत्मा नीरोग नहीं बन सकता ऐसे तीन शल्य हैं- मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य। आत्मा को संसार समुद्र में डुबाने वाले तीन गर्व हैं- ऋद्धि, रस और साता। ये हेय हैं, अतिचार हैं। इनका प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है।
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