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________________ 77 |15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी बर्बाद कर देती है। * जैन श्रमण निदान रहित होता है, उन्हें देवी, टेवता या चक्रवर्ती का वैभव लुभा नहीं सकता। * मैं सम्यग्दृष्टि हूँ। सम्यग्दर्शन के द्वारा ही साधक हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य का विवेक कर सकता है। दृष्टि ___शुद्ध न हो तो चतुर्गति रूप संसार में भटकने का अवसर आ सकता है। * मैं झूठ व छल कपट से रहित हूँ। * जम्बूद्वीप, धातकी खंड द्वीप और अर्ध पुष्कर द्वीप ये अढाई द्वीप हैं। १५ कर्मभूमियाँ हैं- ५ भरत, ५ ऐरवत, ५ महाविदेह। इन्हीं क्षेत्रों में मनुष्योत्पत्ति होती है। मनुष्य ही साधु बनते हैं। जितने भी साधु रजोहरण गोच्छक के धारक हैं, पंच महाव्रत के पालक हैं तथा १८ हजार शीलांग रथ के धारक हैं, उन साधुओं को सिर झुकाकर अन्तर्मन से नमस्कार करता हूँ। ___ श्रमण प्रतिक्रमण करने से हमारे जीवन में तीन लाभ होते हैं- (१) आस्रव के छेद रुक जाते हैं। (२) जीवन में सजगता आती है। (३) चारित्र विशुद्ध बनता है। _प्रतिष्ठित नगर के जितशत्रु राजा को वृद्धावस्था में पुत्र का जन्म हुआ। अत्यधिक स्नेह होने से देश के प्रसिद्ध वैद्य को बुलाकर कहा- ऐसी कोई दवा दो जो मेरे कुल के लिए अत्यन्त लाभदायक हो। पहले वैद्य ने कहा- कुंवर के शरीर में कोई रोग होगा तो मेरी दवा उसको नष्ट कर देगी। किन्तु बीमारी नहीं होगी तो नई बीमारी पैदा कर देगी और वह मृत्यु से बच नहीं सकेगा। राजा ने कहा- आप तो कृपा रखिए, पेट मसल कर दर्द पैदा करना है। दूसरे वैद्य ने कहा- मेरी दवा बहुत अच्छी रहेगी। रोग होगा तो नष्ट कर देगी और रोग न हुआ तो न लाभ होगा न हानि होगी। राजा ने कहा- आपकी औषधि राख में घी डालने जैसी है। नहीं चाहिए। तीसरे वैद्य ने कहा- मेरी औषधि ठीक रहेगी। प्रतिदिन खिलाते रहो। रोग होगा तो नष्ट हो जायेगा। यदि कोई रोग नहीं हुआ तो भविष्य में नया रोग नहीं होगा। राजा ने तीसरे वैद्य की दवा पसंद की। तीसरे वैद्य की औषधि की तरह दोष लगा हो तब भी और न लगा हो तब भी प्रतिक्रमण लाभदायक है। श्रमण जीवन में हिंसा झूठ, चोरी आदि का अतिचार लगा हो तो प्रतिक्रमण से वे सब दोष दूर हो जायेंगे। अतिचार रोग हैं। प्रतिक्रमण औषधि का काम करता है। दोष लगा हो तब भी और न लगा हो तब भी जीवन शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनता है तथा भविष्य में दोष लगने की संभावना कम हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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