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________________ 67 |15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी उसे सुनलें पर वापस गाली का जवाब गाली से न दें उसे सहन करलें यह तितिक्षा है। गाली देने वाले को क्षमा कर दें यह क्षमाभाव है। उसके प्रति करुणार्द्र हो, सोचें कि यह मेरी वजह से कर्मबंध कर रहा है, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा पर यह कर्मबंध कर मेरी वजह से कर्मपाश में बंध रहा है, यह चिन्तन परमात्म भाव या भगवद्भाव है। समत्व एवं निस्पृह योग है। यह भी प्रतिक्रमण का ही रूप है। अलबत्ता यह सामान्य से उच्चकोटि का प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण से पापों, दोषों, दुष्कृत्यों एवं दुर्विचारों की इतिश्री होनी चाहिये। ऐसा न हो कि सम्वत्सरी की क्षमायाचना कर फिर वही गलतियाँ करने का ढर्रा पुनः चालू हो जावे। प्रतिक्रमण, जैसा मैं कह चुका हूँ स्वशुद्धि का प्रकल्प है। इसमें किसी अन्य का कोई महत्त्व नहीं है। हम स्वयं अपने पापों व दोषों से स्व-प्रयास द्वारा अपनी ही आलोचना कर अपने अपको दोषमुक्त करें। प्रतिक्रमण का लाभ किसी दूसरे के भाव, प्रतिक्रिया आदि पर कत्तई निर्भर नहीं है। इसीलिए मैंने शुरू में ही कहा है कि यह जैन धर्म की विधा अनुपम, अनूठी है एवं अद्वितीय है। यह स्व-पुरुषार्थ से स्वात्मशुद्धि का प्रयोग है। अतः जैसी आपकी दृष्टि है वैसी ही आपकी सृष्टि है एवं जैसा आपका विचार एवं आचार है वैसा ही आपका जीवन-सुधार है। • श्रावक-श्राविका के प्रतिदिन के करणीय छः आवश्यकों में से प्रतिक्रमण महत्त्वपूर्ण आवश्यक है। प्रतिक्रमण का हार्द व मर्म ही यह है कि की हुई गलतियों, दोषपूर्ण दुष्कृत्यों एवं पापयुक्त व्यवहार की आलोचना या प्रायश्चित्त कर उसका दंड स्वीकार कर दोषमुक्त बनना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में प्रायश्चित्त का आधार पापकर्मो से शुद्धि बताया है। प्रायश्चित्त के तीन रूप हैं- १.स्वालोचना २. स्वनिंदना ३. स्वगर्हणा। इन तीनों तरीकों को अपनाकर स्वात्मशुद्धि ही प्रतिक्रमण का मर्म है। सच्चे मन से किये गये प्रायश्चित्त से व्यक्ति के परिणाम सरल व निर्मल बनते हैं, जिससे जीवन के सारे शल्य समाप्त हो जाते हैं। फिर दुबारा ऐसे सरल व निर्मल परिणामी व्यक्ति; उस दोषयुक्त, दुष्कृत्य या पापयुक्त कर्म को दोहराते नहीं हैं। दशवैकालिक सूत्र चूलिका गाथा १२,१३, १४ के अनुसार हम निर्दोष इसलिए नहीं बन पाते कि प्रमत्तता के वशीभूत हो दोष, दुष्कृत्य, पाप या गलती करते वक्त हम उनसे बेभान रहते हैं। हमें ऐसा व्यवहार करते वक्त यह आभास ही नहीं होता कि हम कोई दोषपूर्ण प्रवृत्ति कर रहे हैं या हमारी वजह से कोई प्राणी क्लेशित या खेदित हो रहा है, उसका दिल दुःख रहा है या वह कष्ट पाकर क्लांत हो रहा है। अतएव यह सार्वकालिक सार्वभौम सिद्धान्त है कि हम दोष देखते ही तुरंत उसका निराकरण करें, उसके सुधार हेतु उसे भविष्य पर न टालें। दोष देखना उन्हें त्वरित गति से जानना एवं तत्क्षण उनका निराकरण कर आत्मा को शुद्ध, निर्मल व पावन बनाना ही प्रतिक्रमण का आधारभूत मर्म व हार्द है। सच्चा श्रावक या श्राविका वही है जो छल-कपट, मायाजाल, झूठ व फरेब तथा चालाक मनोवृत्ति को तिलांजलि देकर सर्वथा निश्छल एवं अहंकार-दंभ से मुक्त होकर सच्चे हृदय से अपने दोषों की आलोचना, निंदना-गर्दा करके आत्मशुद्धि का मार्ग प्रशस्त करे। इसी को भाव प्रतिक्रमण कहते हैं। इसमें औपचारिकतावश लिए व्रत का मजबूरी में पालन करने का भाव पास भी नहीं फटक पाता। जो अत्यन्त सूक्ष्म व अप्रमत्त दृष्टि से अपनी भूलों व दोषों का अवलोकन कर उनका सच्चे हृदय से पश्चात्ताप कर अपनी आत्मा की शुद्धि करता है वह फिर वैसी भूल की या दोष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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