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________________ जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| पुनरावृत्ति कभी नहीं करेगा। यही सात्त्विक प्रतिक्रमण का मर्म है। शास्त्र कहता है, “अणागयं पिंडबंधं न कुज्जा" अर्थात् हम अपने दोषों को जानकर उन्हें तत्काल सुधार लें। भविष्य पर न टालें क्योंकि वह घोर प्रमाद है। प्रभु ने क्षणमात्र के प्रमाद को भी नकारा है।। प्रतिक्रमण साधु-साध्वियों के लिये भी नित्य आवश्यक है। उन्हें भी देवसिय व राइय प्रतिक्रमण गुरु साक्षी से प्रतिदिन करके, अपने दोषों को गुरु के समक्ष सरल मन से प्रकट कर प्रायश्चित्त दंड प्राप्त करके त्वरित गति से अपने संयमी जीवन को स्खलनामुक्त व शल्यमुक्त बनाना चाहिये। प्रभु ने फरमाया है 'निःशल्यो व्रती'। व्रती वही है जो शल्य रहित है। इसमें भी महाव्रती तो सदैव निःशल्य व निग्रन्थ (गाँठ रहित) होना ही चाहिये। आचार्य शय्यंभव ने दशवैकालिक चूलिका २ की गाथा १२ व १३ में बड़े बलपूर्वक संयमित आत्माओं को लक्ष्य कर फरमाया है-"किं मे परो पासइ, किं व अप्पा किं वाहं खलियं न विवज्जयामि।'' अर्थात् आत्मार्थी महाव्रतधारी को चाहे वह साधु या साध्वी, शांतचित्त से रात्रि के प्रथम व अंतिम प्रहर में अंतरात्मा की सूक्ष्मतम गहराई में डूब, एकांत में केवल अपने आप से वार्तालाप कर, यानी अंतरमन की गहराई में उतरकर एकाग्र हो, यह विचार अवश्य करना चाहिए कि मैं अपने गृहीत महाव्रतों, नियमोपनियमों, अभिग्रहों व संयमाचार की मर्यादाओं से कहीं किसी वक्त स्खलित तो नहीं हुआ हूँ अथवा वर्तमान में कुभाव कुविचार से स्खलना के दोष से ग्रसित तो नहीं हो रहा हूँ? वह यह विचार करे कि मेरी स्खलनाओं को गुरु भगवंत व मेरे अम्मापियरो श्रावक-श्राविका वर्ग किस दृष्टि से देख रहे हैं। अन्तरनिरीक्षण द्वारा मैं स्वयं ही अपनी स्खलनाओं, दोषों, पापयुक्त या आसक्तियुक्त प्रवृत्ति से, अंतरमन से, शुद्ध हृदय से आलोचना, निंदना व गर्हणा कर अपने को तुरंत दोषमुक्त कर निर्मल संयमाचार की पालना में सन्नद्ध हो जाऊँ। आत्म-निरीक्षण आत्म-अनुशासन है। संयमी आत्मा के लिए जरा सी भी स्खलना संयमभ्रष्ट होने का मार्ग प्रशस्त करती है। अतः संत-मुनिराज व महासतियाँ जी का तो और अधिक उत्तरदायित्व व कर्त्तव्य है कि वे दोषों व स्खलनाओं को तुरन्त शुद्ध व सरलमन से प्रकट कर, प्रायश्चित्त का दंड प्राप्त कर, अपने संयमी जीवन को बेदाग, निर्मल, पावन व पवित्र बनावें। संयमी प्रतिक्रमण का यही मर्म है। ___इस समस्त विवेचन का सारभूत तत्त्व यही है कि साधुगण हो या साध्वीवृंद, श्रावक हों या श्राविका, प्रतिक्रमण शुद्ध मन से, मन की सारी गाँठे खोलकर सरल मन से करने पर ही आत्मशुद्धि संभव है। यह अपने द्वारा अपनी आत्मशुद्धि का प्रकल्प है जिसमें औपचारिकता या मात्र क्रिया-कांड का विशेष महत्त्व नहीं होता। प्रतिक्रमण का मर्म है सरलमन से, प्रायश्चित्त के शुद्ध भाव से आत्मा को दोषमुक्त, निर्मल, पवित्र व पावन बनाना। - पूर्व न्यायाधिपति, राजस्थान उच्च न्यायालय सिरेह-सदन, २०/३३, रेणुपथ, मानसरोवर, जयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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