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________________ 66 66 | जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| दोष हैं उन्हें गिनाकर, अठारह पापों के सेवन से बचने, पन्द्रह कर्मादानों से किनारा करने, प्रभु-वंदन एवं गुरुवंदन के साथ पूर्ण स्वस्थ मन से, अपने समस्त अतिक्रमों से स्व-निंदा, स्व-गर्हा व स्व-खेद प्रकट कर, उनसे निवृत्त होने की क्रिया का विधान किया गया है। मूल पाठ प्राकृत में है जिसे कुछ लोग कंठस्थ व अन्य लोगों को प्रतिक्रमण करवाते हैं। जो यह प्रतिक्रमण करवाते हैं उनमें से कुछ ऐसे भी लोग हैं जो उसका शब्दार्थ एवं भावार्थ नहीं जानते। मात्र रटी-रटाई स्मृति के आधार पर प्रायोजित विधि से उसे सम्पन्न कर देते हैं। बहुत से प्रतिक्रमण करवाने वाले मूल पाठ का शब्दार्थ एवं भावार्थ जानते हुए भी उसे अपनी नेश्राय वालों को उसका मर्म बताये बगैर उसका पठन ऐसी फ्रण्टियर मेल की स्पीड से करते हैं एवं नेश्राय वाले भी बड़े यांत्रिक ढंग से 'मिच्छा मि दुक्कडं' देकर व खमासमणो आदि कर अपने दोषों से इतिश्री होना मान लेते हैं। यह प्रतिक्रमण का मर्म या हार्द नहीं है कि उसे एक औपचारिक आयोजन बना अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली जाए। वस्तुतः प्रतिक्रमण का शांति पूर्वक शुद्ध उच्चारण कर उसका शब्दार्थ, भावार्थ व मर्म अपनी नेश्राय वालों को अवगत कराकर यह आत्मशुद्धि का यज्ञ सम्पन्न किया जावे तो कई लोग इसका यथोचित लाभ उठाकर दोष मुक्त हो सकते हैं। सोचने व समझने का समय मिले बगैर दोषमुक्ति कैसे संभव है? प्रतिक्रमण की क्रिया का अपना महत्त्व है। साधक वस्तुतः पापों व दोषों से मुक्त होने के भाव से सामायिक व्रत ग्रहण कर उसमें शिरकत करता है, अतः उसे उसका कुछ अंशों में लाभ मिलेगा यह निश्चित है, परन्तु यदि प्रतिक्रमण सूत्र के शुद्ध पाठ को शांतिपूर्वक शुद्ध उच्चारण के साथ बोलकर एवं उसके भाव को समझाकर लोगों को दोष एवं पाप मुक्त होने के लिए प्रेरित किया जाये तो इसका अचिन्त्य लाभ प्रतिक्रमण करवाने वाले को भी मिलेगा एवं जो उसे कर रहे हैं उन्हें तो उसका अपूर्व लाभ होगा ही। मेरा विनम्र मत है कि प्रतिक्रमण की इस प्रक्रिया को मात्र औपचारिकता निर्वहन का माध्यम न बनाकर, इसके भावात्मक पक्ष को उजागर कर प्रतिक्रमण करवाया जाये तो इसका फल क्रान्तिकारी होगा। व्यक्ति कई पापों व दोषों को जानकर जिनसे वह अब तक अनभिज्ञ है या था वह भविष्य में उनसे बचने का हर संभव प्रयत्न करेगा। यही प्रतिक्रमण का हार्द है, मर्म है। ___ मैं शुरू में कह गया एवं फिर उसे दुबारा कहना चाहता हूँ कि 'प्रतिक्रमण' स्वयं द्वारा स्वयं की आत्मा को दोष एवं पाप मुक्त करने का सूत्र है। कोई बुरा माने या न माने, किसी का दिल दुःखे या नहीं दुःखे, किसी को ग्लानि या क्षोभ हो अथवा न हो, हमको अपने दोषों व पापों की स्व-साक्षी, गुरु साक्षी व प्रभु साक्षी से निंदा-गर्दा करके एवं स्वयं को ही स्वयं द्वारा धिक्कार देकर (यानी स्वालोचना कर) स्व प्रयत्नों से स्वयं को दोष मुक्त करना है। जो कहे हुए बुरे शब्दों व दुष्कार्यो की कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, तितिक्षा भाव से उन्हें सहन कर जाता है या दोषपूर्ण व्यवहार में उत्तेजित होने के बजाय क्षमाभाव धारण करता है वह भी प्रतिक्रमण ही कर रहा है, क्योंकि वह अतिक्रमण से बच रहा है। अतिक्रमण से बचे रहना श्रेष्ठ प्रतिक्रमण है। अतिक्रमण करके फिर प्रतिक्रमण करना ऐसा ही है जैसे कि स्वयं कीचड़ में पाँव डालकर फिर स्वयं ही अपने पाँव साफ करना। ऐसा प्रतिक्रमण उपर्युक्त प्रतिक्रमण से नीची कक्षा का प्रतिक्रमण है। आपको कोई गाली दे आप उसे सुनें नहीं एवं चल दे, यह प्रतिक्रिया हीनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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