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________________ 15. 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 65 नहर या तालाब का जल स्नान हो अथवा खेती या बगीचे की कंटाई-छंटाई या पिलाई हो, या गमले की खुर्पी हो, गाय-भैंस का दुग्ध दोहन हो, या भोजन पकाने हेतु जलाई अग्नि हो या कचरे व झाड़-झंखाड़ को नष्ट करने हेतु जलाई अग्नि हो । यह निश्चित है कि छद्मस्थ से ऐसे अतिक्रमण जानते अजानते होना संभव है, जिनसे दूसरे को कष्ट पहुँचे, उसको दुःख पहुँचे, उसका दिल दुःखे अथवा उसे क्षोभ या ग्लानि पैदा हो 1 जैन धर्म में व्रती व्यक्ति के मर्यादित व्यवहारों के अतिक्रमों के प्रति स्व-शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण का विधान है। यह विधा स्व-शुद्धि की विधा है । स्वशुद्धि का एक अंग है क्षमा । इसमें दूसरा क्या महसूस करता है, वह क्षमा प्रदान करता है या नहीं, इसका उतना महत्त्व नहीं है। मूल में प्रतिक्रमण का अर्थ या मर्म है "स्वात्मशुद्धि" । यहाँ द्वैत का भाव नहीं है। हमने जो भी गलती की या अप्रिय कार्य या विचार किया हो अथवा हमारी वजह से किसी को दुःख, कष्ट, खेद या विषाद पैदा हुआ हो अथवा होने की स्थिति होने पर भी उस प्राणी की समभाव की स्थिति या अनासक्ति के कारण ऐसा न भी हुआ हो तो भी हम अपनी तरफ से उक्त सारे अतिक्रमों की निंदा - गर्हा व आत्मालोचना कर अपनी आत्मा को शुद्ध कर 1 जैनधर्म की मान्यता है कि व्यक्ति को अपने अतिक्रमी व्यवहार का पता लगते ही उसका तुरन्त प्रतिक्रमण करना चाहिए। जिसके प्रति गलत व्यवहार हो उससे क्षमा माँग कर अथवा जो प्राणी अपने भावों को व्यक्त न कर सकें या जिनके प्रति मन में दुर्भाव आएँ या विचार उत्पन्न हों, जिनका उसको प्रकट में पता भी न लगे, उन्हें तुरन्त गुरुदेव के समक्ष प्रकट कर उस दोष के लिए स्वयं को धिक्कार प्रदान कर गुरुदेव से दंड प्राप्त करना चाहिए। जो दोष हमारे खुद के भी ध्यान में न आयें अथवा जो स्वाभाविक रूप से हो रहे हैं और हम उनकी तरफ सोचते नहीं हैं, दिवस के उन दोषों का देवसिय प्रतिक्रमण करें। रात्रिकालीन दोषों, स्वप्न आदि में किये दुर्विचारों व दुष्कृत्यों आदि का राइय ( रात्रिकालीन) प्रतिक्रमण प्रभातवेला में करें। ऐसा संभव न हो तो पाक्षिक प्रतिक्रमण करें। वह भी न हो पाये तो चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करें एवं स्वयं को उन दोषों, दुष्कृत्यों एवं दुर्विचारों से मुक्त करें। यह भी संभव न हो तो प्रत्येक जैन श्रावक को बारहमासिक संवत्सरी प्रतिक्रमण तो अवश्य करके अपने को दोषमुक्त करना चाहिए। दोषमुक्ति की यह क्रिया दिल से हो ताकि जो दोष एक बार हो गया है एवं जिसे हमने निंदा गर्हा कर स्वयं को धिक्कार प्रदान किया है उस दोष की पुनरावृत्ति न करें अन्यथा यह प्रतिक्रमण मात्र औपचारिकता बन कर रह जायेगा । दोषों की निंदा, गर्हा व दोष के लिए स्वयं को धिक्कारने की क्रिया शुद्ध मन से करने पर कभी औपचारिक नहीं हो सकती, क्योंकि भावना दोष-मुक्ति एवं स्वात्मशुद्धि की है, जिनका औपचारिकता से कोई लेना देना नहीं है। यदि प्रतिक्रमण करके भी फिर उन्हीं दोषों की पुनरावृत्ति करें तब तो वही कहावत चरितार्थ होगी कि “मक्का गया, हज किया व कर आया हाजी। आजमगढ़ में घुसते ही फिर वही पाजी का पाजी।” ऐसा प्रतिक्रमण मायाचार है, ढोंग है, जिसे प्रतिक्रमण की संज्ञा प्रदान करना भी प्रतिक्रमण के उच्च एवं पवित्र भाव के साथ खिलवाड़ और घिनौनी हरकत करना है। प्रतिक्रमण सूत्र में श्रावक के बारह व्रतों, साधु-साध्वी के पाँच महाव्रतों के जो संभावित अतिचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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