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________________ प्रतिक्रमण का मर्म श्री जसराज चौपड़ा प्रतिक्रमण स्वशुद्धि की एक विधा है । ज्ञात-अज्ञात रूप से हम अतिक्रमण की अनेक क्रियाएँ करते हैं जिनसे दूसरों को कष्ट पहुँचता है एवं अपनी आत्मा मलिन बनती हैं। प्रतिक्रमण का मर्म है स्वकृत दोषों की सरलमन से आलोचना एवं प्रायश्चित्त कर शुद्धि कर लेना । साधक स्वीकृत व्रतों का उल्लंघन होने पर तत्काल प्रतिक्रमण कर स्वनियम में पुनः स्थित हो जाता है । वह स्वालोचना, स्वनिन्दना, स्वगर्हणा द्वारा स्वात्मशुद्धि कर अपने को निष्पाप बना लेता है। माननीय न्यायाधिपति महोदय ने जीवन में प्रतिक्रमण के माध्यम से दोषमुक्त बनने की प्रभावी प्रेरणा की है । -सम्पादक 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 64 प्रतिक्रमण जैनधर्म की अनूठी, अनुपम एवं आत्म- विशुद्धि की यानी आत्मा को विमल एवं निर्मल बनाने की मौलिक विधा है, जिसके तुल्य कोई विधि-विधान अन्यत्र किसी भी धर्म में इस रूप में प्राप्त नहीं होता। चाहे साधु-साध्वी हों अथवा श्रावक-श्राविका या सामान्य संसारी, इनमें से कोई भी इस कलिकाल में अथवा परम पूज्य जम्बूस्वामी के बाद केवलज्ञान का धारक सर्वज्ञ नहीं है। सभी छद्मस्थ हैं और अपूर्ण हैं। अतः गलती या स्खलना, किसी अन्य के प्रति खेद - विक्षोभ पैदा करने वाला व्यवहार अथवा विचार आना सर्वथा संभव है। Jain Education International किसी का बुरा करना, किसी के बारे में बुरा सोचना, किसी को बुरा बोलना, किसी पर क्रोध करना, प्रकट रूप से किसी की निंदा-विकथा करना या अपशब्दों द्वारा दिल दुःखाना यह तो हमारे प्रकट व्यवहार एवं विचारों के परिणाम हैं, परन्तु कुछ ऐसे कृत्य हैं जिनसे प्रकट में ऐसा नहीं लगता कि हम किसी का बुरा कर रहे हैं या अहित कर रहे हैं, फिर भी हमारे कई ऐसे कृत्य होते हैं, जिनसे कितने ही जीवों की विराधना होती है, उन्हें दुःख पहुँचता है, कष्ट होता है, मन में क्षोभ एवं ग्लानि पैदा होती है। जिनसे प्रकट रूप से हमारा कोई दुर्भाव नहीं है, फिर भी छः काय के प्राणियों को हम कष्ट पहुँचाते हैं, जैसे- श्वास लेना, पानी पीना, चलनाफिरना, गाड़ी, स्कूटर, ट्रेन, साइकिल, बैलगाड़ी, ऊँट, घोड़े आदि से यात्रा करना, प्रशंसावश ताली बजाना, सौन्दर्य प्रदान करने हेतु पेड़-पौधों को मनचाही आकृति देना, खेती, व्यापार, उद्योग आदि कार्य अपने जीविकोपार्जन हेतु करना जिनमें हमारा उद्देश्य प्रकट रूप से किसी को दुःखी करने या कष्ट पहुँचाने का नहीं है, फिर भी जानते-अजानते हम चाहे वह वायुकाय के जीव हों, पृथ्वीकाय के हों, अप्काय के जीव हों, तेऊकाय के जीव हों या वनस्पतिकाय के अथवा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीव हों उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं या कष्ट न भी पहुँचाएँ तो भी उन्हें क्षोभ या खेद - ग्लानि जरूर प्रदान करते हैं। फिर चाहे वह नदी, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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