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115,17 नवम्बर 2006
जिनवाणी स्वाभाविक है- साधक को उक्त क्रियाओं के द्वारा होने वाली स्खलनाओं के प्रति सतत जागरूक रहना चाहिए। स्खलनाओं के प्रति तनिक भी उपेक्षा न रखकर उन दोषों से निवृत्ति हेतु प्रतिक्रमण करने की भगवान् की आज्ञा है। प्रतिक्रमण अवश्यकरणीय है। ज्ञानीजनों ने इसे जीवन को परिमार्जित करने की अपूर्व क्रिया बताई है। इस क्रिया को अपनाते हुए साधक प्रतिक्रमण के अन्तर्गत अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है। प्रतिक्रमण की क्रिया करते हुए साधक के मन, वचन और काया में एकरूपता होना आवश्यक है। साधक व्यावहारिक जीवन जीते समय अथवा साधना करते समय कभी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि से साधना च्युत हो सकता है, भूल हो सकती है। ऐसी स्थिति में वह प्रतिक्रमण करे। प्रतिक्रमण के समय जीवन का गंभीरता से अवलोकन कर एक-एक दोष का परिष्कार करने का प्रयास करे। साधक प्रतिक्रमण में प्रत्येक प्रवृत्ति का अवलोकन करते हुए, दृष्टिगोचर हुए दोषों को सद्गुरु के समक्ष अथवा भगवान् की साक्षी से व्यक्त कर हल्का बना सकता है।
प्रतिक्रमण को साधक की दैनन्दिनी बताते हुए ज्ञानीजन फरमाते हैं कि साधक उसमें अपने दोषों की सूची अंकित कर दोषों से मुक्त होने की प्रक्रिया अपनाता है। कई साधकों ने अपने जीवन को डायरी के माध्यम से सुधारा है, ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं। प्रतिक्रमण आध्यात्मिक जीवन की धुरी है और जीवन सुधार का उत्तम उपक्रम है। आत्म-दोषों को देखकर आलोचना करने से पश्चात्ताप की भावना जागृत होती है, और पश्चात्ताप ही एक ऐसी अग्नि है जिसमें सभी दोष जलकर समाप्त हो जाते हैं।
प्रतिक्रमण के ८ पर्यायवाची शब्दों में 'निन्दा' और 'गर्हा' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। दूसरों की निन्दा से कर्म-बंधन होता है और स्व-निन्दा से कर्मो की निर्जरा होती है। जब साधक अपने जीवन का निरीक्षण करता है तो उसे अपने जीवन में अनेक दुर्गुण दिखाई दे जाते हैं। साधक गुणग्राही होता है, दुर्गुणों को वह अपने जीवन में से धीरे-धीरे निकालने का प्रयास करता है और सद्गुणों को ग्रहण करता है।
-सेवानिवृत्त, हिन्दी व्याख्याता, राज. सी.सै. स्कूल के पास
अलीगढ़, जिला-टोंक (राजस्थान)
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