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| जिनवाणी
|15,17 नवम्बर 2006 वस्तुओं को पाना चाहता है। वे इच्छाएँ सतत वृद्धिंगत होती रहने से मानव के अंतस् में सदा अशांति बनी रहती है। इस अशांति को मिटाने का एकमात्र उपाय ज्ञानीजनों ने प्रत्याख्यान बताया है। साधक प्रत्याख्यान ग्रहण कर, अशांति का जो मूल कारण आसक्ति और तृष्णा है उसे नष्ट करता है। आसक्ति के बने रहने तक शांति उपलब्ध होना कदापि संभव नहीं है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है- उसे यथावत् बनाये रखने के लिए प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है।
अनुयोगद्वारसूत्र में प्रत्याख्यान का एक नाम 'गुणधारण' दिया हुआ है, जिसका आशय है व्रतरूपी गुणों को धारण करना। प्रत्याख्यान द्वारा मन, वचन और काया के योगों को रोककर शुभ योगों में प्रवृत्ति कराई जाती है- जिससे इच्छाओं पर अंकुश लगता है। इससे तृष्णाएँ शान्त हो जाती हैं, परिणामस्वरूप अनेक सद्गुणों की उपलब्धि होती है। आचार्य भद्रबाहु ने इस संदर्भ में कहा है- “पच्चक्खाणंमि कए आसवदाराई हुति पिहियाई, आसववुच्छरणं तण्हा वुच्छेयणं होइ।' अर्थात् प्रत्याख्यान से संयम होता है, संयम से आस्रव का निरोध होता है, आस्रव निरोध से तृष्णा का अंत हो जाता है। तृष्णा के अंत से अनुपम उपशम भाव उत्पन्न होता है
और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध बनता है। उपशम भाव की विशुद्धि से चारित्र धर्म प्रकट होता है, चारित्र से कर्म निजीर्ण होते हैं, उससे केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट होता है। जिससे शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। साधना के क्षेत्र में प्रत्याख्यान का विशिष्ट महत्त्व रहा है। षडावश्यक में प्रत्याख्यान को सुमेरु के शीर्ष स्थान पर कहा है। प्रत्याख्यान से भविष्य में आने वाली अव्रत की सभी क्रियाएँ रुक जाती है। श्रमणों और श्रमणोपासकों दोनों के लिए १० प्रकार के प्रत्याख्यान का विधान किया है, जो अग्रांकित हैं
१. अनागत- नियत समय से पहले तप करना। २. अतिक्रान्त- नियत समय के बाद तप करना। ३. नियंत्रित- संकल्पित तप का परित्याग न करना। ४. कोटि सहित- जिस कोटि से तप प्रारंभ किया, उसी से समाप्त करना। ५. साकार- जिसमें आगार रखे जाते हैं। ६. अनाकार- जिस तप में आगार न रखे जायें। ७. परिमाणकृत- जिसमें दत्ति आदि का परिमाण किया जाय। ८. निरवशेष- अशनादि का सर्वथा त्याग हो। ९. संकेत- जिसमें संकेत हो (मुट्ठी आदि खोलने का)। १०. अद्धा प्रत्याख्यान- काल की अवधि के साथ किया जाने वाला प्रत्याख्यान।
प्रतिक्रमण एवं कायोत्सर्ग द्वारा पूर्व संचित कर्मो का क्षय होता है। छठे आवश्यक प्रत्याख्यान में नवीन बँधने वाले कर्मों के निरोध का वर्णन है। प्रत्याख्यान भविष्यकालिक पापों का निरोधक है, अतएव प्रतिक्रमण में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उपसंहार
इस प्रकार उपर्युक्त समग्र विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि 'प्रतिक्रमण' जैन साधना का प्राण तत्त्व है। ऐसी कोई भी क्रिया नहीं जिसमें प्रमादवश स्खलना न हो सके। लघुशंका एवं शौच निवृत्ति करते समय, श्रमण द्वारा प्रतिलेखना करते समय, भिक्षाचरी हेतु इधर-उधर गमनागमन करते समय स्खलना होना
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