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________________ 56 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६७ में उल्लेख है- "प्रतिक्रम्यते-प्रमादकृतदेवसिकादिदोषो निराक्रियतेऽनेनेति प्रतिक्रमणम्।'' अर्थात् प्रमाद के कारण देवसिक आदि दोषों को जिसमें निराकृत किया जाता है, वह प्रतिक्रमण है। भगवती आराधना (वि.६/३२/१९) में भी उल्लेख है - "स्वकृतादशुभयोगात् प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणम्।" सामान्य रूप में प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ ‘पापों से निवृत्त होना' अथवा पापों से पीछे हटना के रूप में सर्वग्राह्य है। आत्मा की वृत्ति जो अशुभ हो चुकी है, उस वृत्ति को शुभ स्थिति में लाना अथवा अतीत के जीवन का प्रामाणिकता पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण कर भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो ऐसा संकल्प करना, प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का शब्द विन्यास की दृष्टि से आचार्यों द्वारा अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है, प्रति- प्रतिकूल, क्रम- पद निक्षेप; अर्थात् इसका फलित अर्थ हुआ- “जिन पदों से मर्यादा बाहर गया है, उन्हीं पदों से वापस लौट आना प्रतिक्रमण है।" जैसा कि कहा भी गया है- “स्वस्थानाद् यत्परस्थानं प्रमादस्यवशाद्गतः तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते।" प्रतिक्रमण क्यों व किसलिए? । मन की छोटी बड़ी सभी विकृतियाँ जो किसी न किसी रूप में पाप की श्रेणी में आती हैं, उनके प्रतिकार के लिए जैन परम्परा में प्रतिक्रमण एक महौषधि स्वीकार की गई है। तन की विकृति जिस प्रकार रोग है, वैसे ही क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकृतियाँ मन एवं आत्मा के रोग हैं। रोग की चिकित्सा भी आवश्यक है- अन्यथा उसके दीर्घगामी दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं। अतः प्रतिक्रमण रूपी चिकित्सा के द्वारा मानसिक विकृतियों को तत्काल परिमार्जित कर लेना परमावश्यक कहा है। __ प्रतिक्रमण प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवश्य करणीय बताया है। जैसे जल स्नान से शरीर का मैल धुलकर शरीर निर्मल-स्वच्छ बन जाता है उसी प्रकार प्रतिक्रमण करने से आत्मा के साथ लगी हुई पापक्रियाओं का कर्म-मल धुल जाता है और आत्मा शुद्ध बन जाती है। विशेष बात यह है कि शरीर-मल तो क्षणिक शरीर-शोभा को विकृत करता है, किन्तु पाप-क्रिया रूप मैल आत्मा को अनंत संसार में भटकाता व दुःखी बनाता है। अतः प्रतिक्रमण इस मैल को धोने का अचूक साधन है, जो प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। प्रतिक्रमण पाप के प्रक्षालन की क्रिया होने से यह प्रतिदिन किया जाना आवश्यक है, जिससे प्रतिदिन जीवन में लगे दोषों की शुद्धि उसी दिन हो जाय। प्रतिक्रमण की नियमित साधना करने से व्रत-पालन में तेजस्विता आती है। पापशल्य व्रत-पालन में अवरोध है। अतः पापशल्य को निकालने हेतु प्रतिक्रमण की साधना अत्यन्त आवश्यक है। साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग ये पाँचों भयंकर दोष हैं। साधक प्रातः सायं अपने जीवन का अंतर्निरीक्षण करता है और चिन्तन करता है कि वह सम्यक्त्व के प्रशस्त मार्ग को छोड़कर मिथ्यात्व के ऊबड़-खाबड़ अप्रशस्त-मार्ग में तो नहीं भटका है, व्रत को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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