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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 55 साथ ही दाक्षिण्य भाव को प्राप्त करता है अर्थात् वह लोगों का प्रीति - पात्र और मान्य बन जाता है । वन्दन करने से वन्दनीय के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट होता है और भक्ति का स्रोत प्रवाहित होता है। अतः साधक को यथासयम जागरूक रहकर वन्दना करना चाहिए । वन्दन करते समय मन में किसी प्रकार की स्वार्थ भावना. आकांक्षा, भय अथवा अनादर की भावना नहीं होनी चाहिए। वंदनीय को ससम्मान मन, वचन और काया के तीन योगों से वन्दन करने की प्रभु ने साधक को आज्ञा फरमाई है। ४. प्रतिक्रमण सूत्र : चौथा आवश्यक उद्देश्य - प्रतिक्रमण की साधना का मूल उद्देश्य ज्ञान-दर्शन- चारित्र पर लगे अतिचारों का शुद्धीकरण करना है। रत्नत्रय का आराधक अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर जाता है, अपनी स्वभाव दशा से निकल कर विभाव दशा में चला जाता है, अतः पुनः स्वभाव रूप सीमा में प्रत्यागमन हेतु भगवान् ने प्रतिक्रमण की व्यवस्था दी है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है- “शुभयोगेभ्योऽशुभ-योगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम्।” अर्थात् शुभ योगों में से अशुभयोगों में गये हुए अपने आपको पुनः शुभ में लौटाने के लिए प्रतिक्रमण एक सशक्त माध्यम है। नामकरण- षट् आवश्यकों में चतुर्थ आवश्यक सबसे बड़ा होने के कारण तथा इसका नाम 'प्रतिक्रमण' होने के कारण छहों आवश्यकों की संयुक्त प्रक्रिया को ही प्रतिक्रमण की संज्ञा दी गई है। फलस्वरूप इसे प्रतिक्रमण के नाम से अभिहित किया जाने लगा है। आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यक चूर्णि आवश्यक हरिभद्रीयावृत्ति, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति प्रभृति ग्रंथों में प्रतिक्रमण के ८ पर्यायवाची नामों का उल्लेख है, जो प्रतिक्रमण के विभिन्न अर्थो को व्यक्त करते हैं। वे नाम हैं- १. प्रतिक्रमण २. प्रतिचरणा ३. प्रतिहरणा ४. वारणा ५. निवृत्ति ६. निन्दा ७. गर्हा और ८. शुद्धि । इन आठों का भाव एक ही है। उपर्युक्त शब्द प्रतिक्रमण सम्पूर्ण अर्थ को समझने में पूर्ण सहायक हैं। स्वरूप- सैद्धान्तिक, व्यावहारिक एवं अन्य सभी दृष्टियों से हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों से निवृत्ति ही जीवन-धर्म है। यही संयम है और यही नियम है। उसमें मन, वचन और काया द्वारा स्वयं दोष लगाना, दूसरों से लगवाना तथा दूसरों द्वारा दोष लगाते हुए का अनुमोदन करना उसका (नियम का) अतिक्रमण है । वह अतिक्रमण नियम का दोष है। अतः प्रमाद आदि से हुए पाप की शुद्धि के लिए आलोचना, निंदा, पश्चात्ताप आदि क्रिया प्रतिक्रमण है। इसका स्वरूप व्यापक है- जिसका विवेचन आलेख के विभिन्न संदर्भों में प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप में संपूर्ण लेख पर्यंत विस्तार से उपलब्ध है। शाब्दिक अर्थ - उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २९ के विवेचन में पूज्य आचार्य भगवन्त श्री हस्तीमल जी म.सा. ने प्रतिक्रमण का अर्थ विवेचित करते हुए फरमाया है- "ज्ञान, दर्शन, चारित्र में प्रमादवश जो दोष (अतिचार) लगे हों उनके कारण जीव स्वस्थान से पर स्थान में (संयम से असंयम में) गया हो, उससे प्रतिक्रमण करना (वापस लौटना ) उन दोषों (या स्वकृत अशुभ योगों) से निवृत्त होना प्रतिक्रमण है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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