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1541 जिनवाणी
|15,17 नवम्बर 2006|| नारी-जीवन के अभ्युत्थान का उत्कृष्ट आदर्श है, भगवान् अरिष्टनेमि करुणा के साक्षात् अवतार के रूप में हमारे आदर्श हैं। भगवान् पार्श्वनाथ का स्मरण हमें तत्कालीन तप-परम्परा का जिसमें ज्ञान-ज्योति का अभाव था, का वीतराग रूप प्रकट करता है एवं भगवान् महावीर का जीवन आर्यों-अनार्यों, देव-दानवों, पशुपक्षियों द्वारा दिये गये भयंकर उपसर्गों से तनिक भी विचलित नहीं होने देता। समभाव में रहने, जाति-पाँति का खण्डन कर गुणों की महत्ता स्वीकार करते हुए नारी जाति को प्रतिष्ठा प्रदान करने के उनके आदर्श हमारे हृदय-पटल पर उभर कर प्रभावी प्रेरणा प्रदान करते हैं। तीर्थंकर भगवंतों की स्तुति मानव-मन में अपने पौरुष को जागृत करने की प्रेरणा देती है। वे हमारे साधना-मार्ग के प्रकाश-स्तम्भ हैं। भगवान् महावीर से उत्तराध्ययनसूत्र में पृच्छा की गई- “चउवीसत्थर णं भंते! जीवे किं जणयइ?'' अर्थात् हे भगवन्! चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से जीव को क्या फल मिलता है? भगवान् का प्रत्युत्तर था- “चउवी-सत्थर णं दं-सणविन्सोहि जणयइ।'' अर्थात् चुतुर्विंशतिस्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती है। साथ ही उससे श्रद्धा परिमार्जित होती है
और सम्यक्त्व विशुद्ध होता है, उपसर्ग-परीषहों को समभावपूर्वक सहन करने की शक्ति का विकास होता है तथा तीर्थंकर बनने की पावन-प्रेरणा अंतस् में जागृत होती है। ३. वंदन सूत्र : तीसरा आवश्यक
साधना के क्षेत्र में तीर्थंकर भगवंतों के पश्चात् दूसरा स्थान गुरु का है। तीर्थंकर भगवंत देव होते हैं। देव के बाद गुरु का स्थान आता है। देव और गुरु हमारे लिए वंदनीय एवं पूजनीय हैं। गुरु हमारे अज्ञानांधकार को हटाकर ज्ञान-प्रकाश के प्रदाता हैं, मोक्ष मार्ग के पथ-प्रदर्शक हैं। अतः गुरु को वन्दन किया जाता है, उनका स्तवन और अभिवादन किया जाता है। गुरु सद्गुणी होते हैं, अतः उन्हीं के चरणों में साधक वन्दन करता है। वंदन के द्वारा साधक गुरु के प्रति भक्ति एवं बहुमान प्रकट करता है। वन्दनकर्ता में विनय का गुण होना अपेक्षित है। अविनीत का वंदन सार्थक नहीं होता। वह वन्दन, वन्दन नहीं-औपचारिकता अथवा प्रदर्शनमात्र होता है। जैन दृष्टि से साधक चारित्रवान होना चाहिए। वह द्रव्य-चारित्र और भाव-चारित्र से युक्त हो, यह आवश्यक है। दोनों में से एक का अभाव उसकी अपूर्णता का द्योतक है। साधक को ऐसे गुरु की आवश्यकता है जिसके द्रव्य और भाव दोनों ही चारित्र निर्मल हों। व्यवहार और निश्चय दोनों ही दृष्टियों से जिसके जीवन में पूर्णता हो वही सद्गुरु है और वही वन्दनीय है। ऐसे सद्गुरु से ही साधक प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। वन्दन करने से विनय-गुण की प्राप्ति होती है एवं अहंकार रूपी अवगुण नष्ट होता है। वंदन की उपादेयता के संबंध में प्रभु महावीर के अंतेवासी शिष्य पृच्छा करते हैं- "वंदणटणं भंते! जीये किं जणयइ? अर्थात् हे भगवन्! गुरु महाराज को वंदना करने से जीव को क्या लाभ मिलता है? प्रत्युत्तर में जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया- “वंदणटणं णीयागोयं कम्म खवेइ, उच्चागोयं कम्मं णिबंधइ, सोहरगं च णं अप्पडिहयं आणाफलं णिव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ।' अर्थात् वंदना करने से नीच गोत्र-कर्म का क्षय करता है और उच्च गोत्र कर्म को बाँधता है और अप्रतिहत सौभाग्य तथा सफल आज्ञा के फल को प्राप्त करता है।
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