________________
||15,17 नवम्बर 2006||
| जिनवाणी है- इस संदर्भ में प्रथम सामायिक आवश्यक से छठे प्रत्याख्यान आवश्यक तक का उल्लिखित स्वरूपपरिचय स्पष्ट रूप से संक्षिप्त जानकारी प्रदान कराने वाला है। विस्तार-भय से चौथे आवश्यक प्रतिक्रमण सूत्र को छोड़कर पाँचों आवश्यकों की विवेच्य सामग्री का अति संक्षेप में ही उल्लेख किया जा रहा है। १. सामायिक सूत्र : प्रथम आवश्यक
छह आवश्यकों में सामायिक को प्रथम स्थान प्राप्त है। साधक को साधना की पूर्णता के लिए सर्वप्रथम समता की प्राप्ति आवश्यक है। अनुयोगद्वार सूत्र में इसका महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा भी है"जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेन्सु य तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ।' समता को जीवन में स्थान दिये बिना जीवन में सद्गुणों की उपलब्धि नहीं हो सकती। अवगुणों के रहते हुए एवं विषम-भावों की उपस्थिति में वीतराग देवों एवं महापुरुषों के गुणों का संकीर्तन नहीं हो सकता। उनके उदात्त गुणों को जीवन में उतारने के लिए समभावों की उपस्थिति प्रथम आवश्यकता है। सामायिक ही साधक की विशुद्ध साधना होती है। इसमें साधक की चित्तवृत्ति एकदम शांत होने से वह नवीन कर्मो का बंधन नहीं कर निर्जरा का अपूर्व लाभ प्राप्त करता है। सामायिक की महत्ता को आचार्य पूज्यपाद, आचार्य हरिभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, आचार्य मलयगिरि प्रभृति महापुरुषों ने अपने रचित दुर्लभ ग्रंथों में एवं आवश्यक सूत्र की नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य-वृत्ति एवं टीकाओं में यथास्थान, यथावश्यक विशद रूप से विवेचित किया है। आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में सामायिक को 'चौदह पूर्व का सार' कहा है। सामायिक में सावध योगों से निवृत्त रहने का निर्देश किया गया है। कहा भी है- 'समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभभावना। आर्त्त-रौद्र परित्यागस्तद्धि सामायिकं ग्रतम् ।।' ऐसा होने पर ही साधक किसी आलम्बन का आश्रय ग्रहण करता है, ताकि समभाव में स्थिर होकर साधक, तीर्थंकर देवों की स्तुति कर सके। एतदर्थ षडावश्यक में सामायिक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव का स्थान निश्चित किया है, जो आवश्यक सूत्र के द्वितीय अध्ययन एवं प्रतिक्रमण सूत्र के दूसरे आवश्यक के रूप में व्यवहार में प्रयुक्त होता है। २. चतुर्विंशतिस्तव : दूसरा आवश्यक
तीर्थंकर भगवंत त्याग और वैराग्य की दृष्टि से एवं संयम-साधना की दृष्टि से महान् हैं। उनके गुणों का संकीर्तन करने से साधक के हृदय में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। आलोचना के क्षेत्र में पहुँचने से पूर्व क्षेत्र विशुद्धि होना आवश्यक है। साधक की साधना के आदर्श तीर्थंकर देव होते हैं। जब उनके आदर्श की प्रतिमूर्ति साधक के चिन्तन में आती है तो उसका अहंकार भाव पलक झपकने के साथ ही विगलित होता दिखाई देता है। तीर्थंकरों के गुणों का संस्तवन करने से हृदय पवित्र होता है, वासनाएँ शांत होती हैं और संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। तीर्थंकर भगवंतों की स्तुति के समय उन महान् आत्माओं का उज्ज्वल आदर्श हमारे सामने रहता है। जैसे- भगवान् ऋषभदेव का स्मरण आते ही आदिमयुगीन चित्र हमारे मानस-पटल पर उभरने लगता है। भगवान् शांतिनाथ का जीवन शांति का विशिष्ट प्रतीक है। भगवान् मल्लिनाथ का जीवन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org