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________________ 52 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| है कि यह क्रिया आध्यात्मिक क्रिया है। आवश्यक सूत्र में वर्णित विषय-सामग्री नामकरण की सार्थकता को सिद्ध करती है। इसमें समाविष्ट छहों अध्ययन, साधक के लिए आवश्यक हैं और अवश्य करणीय हैं। आगमों में उल्लेख भी है- “दिवस तथा रात्रि के अंत में श्रमण और श्रावक द्वारा जो आवश्यक रूप से करने योग्य है उसका नाम आवश्यक है।" जैसाकि कथन उपलब्ध होता है- "समणेणं सावरण य अवस्सं कायव्वयं हवा जम्हा, अन्तो अहो निसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम।" इसी के साथ अनुयोग द्वार में “अवश्यं करणात् आवश्यकम्' का कथन कर इसी भाव को अभिव्यक्ति दी है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार “अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यकम् । श्रमणादिभिरवश्यम् उभयं कालं क्रियते इति भावे।'' की अभिव्यंजना द्वारा आवश्यक का भाव स्पष्ट होता है। अतः आवश्यकसूत्र पूर्ण सार्थक एवं यथार्थता लिये हुए है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना जरूरी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन की पवित्रता के लिए क्रिया या साधना आवश्यक है, अनिवार्य है। आगम में इसी को 'आवश्यक' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से प्राकृत भाषा के 'आवस्सय' शब्द के संस्कृत भाषा में अनेक रूप बनते हैं, जिनमें कतिपय परिचय में आने वाले शब्द हैं-'आवश्यक', 'आपाश्रय' और 'आवासक'। इनमें से 'आवश्यक' शब्द ही सर्वाधिक प्रचलित एवं व्यवहृत है। अर्थ के परिचय हेतु पद विश्लेषित करने पर जो रूप स्पष्ट होता है, वह इस प्रकार है- 'आ' भली प्रकार, ‘वश्यक' वश किया जाये अर्थात् ज्ञानादि गुण के लिए इन्द्रिय, क्रोधादि कषाय रूप भाव शत्रु जिसके द्वारा वश्य (वश में) किये जायें अथवा पराजित किये जायें, वह आवश्यक है। इस निर्वचन का तात्पर्य आत्मगुणों की अभिवृद्धि तथा आत्मावगुणों का ह्रास होना है। यह आवश्यक क्रिया-भेद से आवश्यक सूत्र में ६ प्रकार का निर्देशित किया गया है, जो छः अध्ययनों में विभाजित है। १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान। विशिष्ट ज्ञानी-ध्यानी आचार्य भगवंतों ने आवश्यक क्रिया का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कथन किया है कि आवश्यक क्रिया पूर्व से प्राप्त हुई भाव-विशुद्धि से आत्मा को पतित नही होने देती, प्राप्त आत्मगुणों में स्खलना नहीं आने देती, जिससे आत्म-गुणों में अभिवृद्धि की सतत प्रक्रिया प्रवाहमान रहती है। आवश्यक क्रिया के आचरण से जीवन का उत्तरोत्तर विकास वृद्धिंगत होता है, फलस्वरूप साधक-आत्मा का जीवन सद्गुणों से ओत-प्रोत हो आनन्दमय बन जाता है। মানুংযুক সুস স সালা কা কন साधना के प्रशस्त मार्ग पर चरण बढ़ाने वाले साधक आत्माओं को अपने इष्ट साध्य की प्राप्ति हेतु तीर्थंकर भगवंतों की आज्ञा का अनुसरण करते हुए श्रुत केवली भगवंतों ने आत्मा की पूर्ण विशुद्धि के लिए आवश्यक सूत्र का छ: अध्ययनों में निरूपण किया है। इसमें प्रतिक्रमण का क्रम चतुर्थ है। प्रकारान्तर से क्रम का यही रूप प्रतिक्रमण की साधना-क्रिया में ज्यों का त्यों रहा हुआ है। साधना का यह क्रम पूर्ण वैज्ञानिक है, जो कार्य-कारण भाव की शृंखला पर आधारित है। आत्म-साधना का यह क्रम कितनी सार्थकता लिये हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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