________________
15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
57
विस्मृत कर अव्रत को ग्रहण करने में तो नहीं लगा है, अप्रमत्तता के स्थान पर प्रमाद का सेवन तो नहीं कर रहा है, अकषाय की शाश्वत आनंददायी स्थिति त्याग कर कषाय सेवन के भयावह मार्ग को अपनाने में नहीं लगा है, योगों की प्रवृत्ति शुभ के स्थान पर अशुभ में तो नहीं चली गई है और ऐसा हो गया है तो अशुभ को त्याग कर शुभ की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। इसी भावना को मूर्तरूप प्रदान करने हेतु प्रतिक्रमण की साधना की जाती है।
-
चरम तीर्थंकर शासनेश प्रभु महावीर की अन्तिम देशना उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २९ की पृच्छा संख्या ११ में भगवान् के अन्तेवासी शिष्य ने पृच्छा की- "पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?" अर्थात् हे भगवन्! प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है ? प्रत्युत्तर में भगवान् .ने फरमाया- "पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पिइ, पिहियवयच्छिद्दे पुण जीवे णिरुद्धासवे असबल-चरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ ।" अर्थात् प्रतिक्रमण करने से साधक व्रतों में बने हुए छिद्रों को बन्द करता है, फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोककर तथा शबलादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला होकर, आठ प्रवचन माताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक एवं अपनी इन्द्रियों को असन्मार्ग से हटाकर संयम मार्ग में विचरण करता है।" प्रतिक्रमण करके साधक पापों से हलका बन कर उच्च गति को प्राप्त करता है। यहाँ तक कि उत्कृष्ट भावों से किया गया प्रतिक्रमण तीर्थंकर पद प्रदान कर मुक्ति में पहुँचा देता है।
प्रतिक्रमण एवं उसकी उपादेयता
प्रतिक्रमण जीवन को सुधारने का एक श्रेष्ठ उपाय है। आत्म-दोषों की आलोचना करने से पश्चात्ताप की भावना जागृत होने लगती है और उस पश्चात्ताप की अग्नि से सभी दोष जल कर नष्ट हो जाते हैं। पापाचरण शल्य के सदृश है- यदि उसे नहीं निकाला गया और मन में ही छिपाकर रखा गया तो उसका विष अंदर ही अंदर बढ़ता चला जायेगा और वह विष साधक के जीवन को बरबाद कर देगा। प्रतिक्रमण में पहले काय - योग की चंचलता रुकती है, इन्द्रियों पर निग्रह बढ़ता है। ध्यान - चिंतन से चित्त एकाग्र बनता है । अभ्यासद्वारा कुशल-साधक कायिक- वाचिक क्रिया को सही रूप में करके मन को स्थिर कर लेते हैं। फिर से पाप न हो, इस दृष्टि से पाप के कारण हटाने या छोड़ने का प्रयत्न करते हैं। एक से मन की एकाग्रता बढ़ेगी तो दूसरे से पाप से विरति होगी । अतिचार भी नहीं लगते, तथा अतिचार के कारणभूत, साधन, प्रमाद, कषायादि भी घटते हैं। जैसे प्रातः उठकर घर की सफाई करना, उसे साफ-सुथरा रखना सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है। उसी तरह अतिचार, अनाचार, ज्ञात-अज्ञात दोषों को साफ करना ज्ञानीजनों का आवश्यक कार्य है। दोषों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है। अतः भगवान् ने उसे अवश्य करने की आज्ञा दी है । सांसारिक प्रवृत्ति करते समय दोष लगना अथवा भूलें होना स्वाभाविक है। इनके भी मुख्य कारणों का उल्लेख शास्त्रों में निरूपित किया गया है, वे हैं- १. अज्ञान जन्य-अज्ञात भूलें २. आवेश पूर्ण भूलें ३. योजनाबद्ध भूलें और ४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org