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________________ ||15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी | 491 कोई छोटा सा व्रत या त्याग होना ही चाहिए, क्योंकि व्रत का बड़ा महत्त्व है। जिस व्यक्ति ने इसका मूल्यांकन किया है, उसने एक तरह से अपनी मानसिक समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया है। मन की गति बहुत तीव्र है। विज्ञान अभी तक ऐसा कोई यंत्र विकसित नहीं कर पाया है, जो इसकी रफ्तार को माप सके। जब इतनी तेज रफ्तार हो और उस पर कोई नियंत्रण न हो तो दुर्घटना अवश्यंभावी है। मन के अश्व की लगाम हाथ में होनी चाहिए। व्रत का मतलब है मन की लगाम को अपने हाथ में लेना, मन की डोर अपने हाथ में रखना। आत्म-निरीक्षण व्रत होने पर भी मन की चंचलता विद्यमान है। चंचलता एकदम समाप्त नहीं हुई है। छत में भी कभी-कभी कोई दरार या छेद रह जाता है। किवाड़ में भी सुराख रह जाता है, दरवाजे ढीले रह जाते हैं। इसके लिए क्या करना चाहिए? उपाय बताया गया - प्रतिक्रमण करो। प्रतिक्रमण का पहला कार्य है आत्मनिरीक्षण । अपने आपको देखना शुरू करें। बड़ा कठिन काम है अपने आपको देखना। हमारी इन्द्रियों की बनावट ही ऐसी है कि इनके द्वारा हम बाह्य जगत् से सम्पर्क स्थापित करते हैं। वहाँ दूसरा ही दूसरा नजर आता है, अपने नाम का कोई तत्त्व वहाँ नहीं है। आँख का काम है देखना । हम दूसरों को देखेंगे। कान का काम है सुनना। हम दूसरों की बात सुनेंगे। हमारी प्रकृति ही ऐसी बन गई है कि इन्द्रियाँ केवल बाहर ही केन्द्रित रहती हैं, स्व-दर्शन बिल्कुल विस्मृति में चला जाता है। आत्मनिरीक्षण का अर्थ है अपने आपको देखना। आँख खुली हो या बन्द, उससे अपने आपको देखें। अपने आचरण को देखें, अपने कर्तव्य को देखें, क्रियमाण को देखें और करिष्यमाण को भी देखें। धार्मिक लक्षण आत्मनिरीक्षण प्रतिक्रमण का पहला चरण है। जो आत्म-निरीक्षण करना नहीं जानता, वह शायद धार्मिक नहीं हो सकता और आध्यात्मिक तो हो ही नहीं सकता। धार्मिक होने का सबसे बड़ा सूत्र है अपने आपको देखना । किसी ने झगड़ा किया, गाली दी। उससे पूछा जाए कि ऐसा क्यों किया? वह यही कहेगा कि मैं क्या करूँ? उसने मुझे गाली दी तो मैंने भी दी। यह कभी नहीं कहेगा कि मैंने दी। सदा यही कहेगा कि पहले उसने दी इसलिए मैंने भी दी। व्यक्ति हर बात में दूसरे को सामने रखता है। किसी से पूछा जाए कि तुमने ऐसा क्यों किया? यही उत्तर मिलता है मुझे ऐसा करना पड़ रहा है। वह ऐसा कर रहा है तो मैं क्यों न करूं? यह कभी स्वीकार नहीं करेगा कि मेरी भूल हुई है। मैंने जो किया या कर रहा हूँ, वह अच्छा नहीं है। दूसरे पक्ष का भी यही उत्तर होगा। दोनों ही अपने को निर्दोष बतायेंगे। दोष कहाँ है, इसका पता ही नहीं चल पाता । यह सब इसलिए हो रहा है कि आत्मनिरीक्षण नहीं है। आत्मनिरीक्षण की भावना जाग जाए तो व्यक्ति यही कहेगा कि हाँ, मेरी भूल हुई है। __ आध्यात्मिक व्यक्ति वह होता है, जो प्रत्येक स्थान पर यह देखता है कि मेरी कमी कहाँ है ? जहाँ दूसरा आता है, अध्यात्मवाद वहीं समाप्त हो जाता है। जो अपने आपको धार्मिक और आध्यात्मिक मानते हैं, क्या वे ऐसा आचरण नहीं कर रहे हैं, जो एक भौतिकवादी करता है। यदि एक धार्मिक व्यक्ति ऐसा कहे कि दूसरे ने मेरे साथ ऐसा किया इसलिए हम भी वैसा कर रहे हैं तो मानना चाहिए कि वह धार्मिक बना ही नहीं है। निश्चय ही उसका मस्तिष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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