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| जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006|| २९. खित्तवुड्ढी- एक दिशा का क्षेत्र घटाकर अन्य दिशा का बढ़ाया हो। ३०. सई अन्तरद्धा- क्षेत्र के परिमाण में संदेह होने पर आगे चला हो। ३१. सचित्ताहारे- सचित्त वतु का भोजन करना। ३२. सचित्तपडिबद्धाहारे- सचित्त (वृक्षादि) से संबंधित (लगे हुए गोंद, पके फल आदि खाना) वस्तु
भोगना। ३३. अप्पउलि ओसहि भक्खणया- अचित्त नहीं बनी हुई वस्तु का आहार करना या जिसमें जीव के प्रदेशों
का संबंध हो, ऐसी तत्काल पीसी हुई या मर्दन की हुई वस्तु का भोजन करना । ३४. दुप्पउलि ओसहि भक्खणया- दुष्पक्व-अधपके या अविधि से पके हुए उम्बी, भुट्टे आदि का आहार
करना। ३५. तुच्छोसहि भक्खणया- तुच्छ औषधि (जिसमें सार भाग कम हो, उस वस्तु) का भक्षण करना। ३६. कंदप्पे- कामविकार बढ़ाने वाली कथा की हो। ३७. कुक्कुइए- भाँड की तरह मुँह आदि से कुचेष्टा की हो। ३८. मोहरिए- निरर्थक वचन बोला हो। ३९. संजुत्ताहिगरणे- हिंसा के साधन जोड़कर रखे हों। ४०. उवभोग परिभोगाइरित्ते- भोगोपभोग की चीजें अधिक बढ़ाई हों। ४१. मणदुप्पणिहाणे- मन से दुष्ट विचार किये हो। ४२. वयदुप्पणिहाणे- दुष्ट वचन बोले हों। ४३. कायदुप्पणिहाणे- काया से सावध क्रिया की हो। ४४. सामाइयस्स सइ अकरणया- सामायिक की स्मृति न की हो। ४५. सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया- सामायिक समय पूर्ण हुए बिना पूरी की हो। ४६. आणवणप्पओगे- मर्यादा किए हुए क्षेत्र से आगे की वस्तु को आज्ञा देकर माँगना। ४७. पेसवणप्पओगे- परिमाण किए हुए क्षेत्र से आगे की वस्तु को मँगवाने के लिए अथवा लेन-देन करने
के लिए अपने नौकर आदि को भेजना या सेवक के साथ वस्तु बाहर भेजना। ४८. सद्दाणुवाए- सीमा से बाहर के मनुष्य को खाँसकर या और किसी शब्द के द्वारा अपना ज्ञान कराना। ४९. रूवाणुवाए- रूप दिखाकर सीमा से बाहर के मनुष्य को अपने भाव प्रकट किए हों।
बहिया पुग्गल पक्खेवे- बुलाने के लिए कंकर आदि फेंकना। ५१. अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सेज्जासंथारए- शय्या संथारा (वस्त्रादि) न देखा हो या अच्छी तरह से न
देखा हो।
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