________________
15, 17 नवम्बर 2006
११. भ्रक्षित - सचित्त का संघट्टा होने पर आहार लेना । १२. निक्षिप्त- सचित्त पर रखा हुआ आहार लेना ।
जिनवाणी
९३. पिहित- सचित्त से ढका हुआ आहार लेना ।
९४. सहत - पात्र में पहले से रखे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से देना ।
९५. दायक - शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी से लेना ।
९६. उन्मिश्र - सचित्त से मिश्रित आहार लेना ।
९७. अपरिणत- पूरे तौर पर पके बिना शाकादि लेना ।
९८. लिप्त - दही, घृत आदि से लिप्त होने वाले पात्र या हाथ से आहार लेना । पहले और पीछे धोने के कारण क्रमशः पुरः कर्म तथा पश्चात्कर्म दोष होता है।
९९. छर्दित - छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना ।
ग्रासैषणा के ५ दोष
१००. संयोजना- रसलोलुपता के कारण दूध और शक्कर आदि द्रव्यों को परस्पर मिलाना ।
१०१. अप्रमाण- प्रमाण से अधिक भोजन करना ।
१०२. अंगार- सुस्वादु भोजन की प्रशंसा करते हुए खाना । यह दोष चारित्र को जलाकर कोयलास्वरूप निस्तेज बना देता है, अतः अंगार कहलाता है ।
१०३. धूम- नीरस आहर की निन्दा करते हुए खाना।
१०४. अकारण- आहार करने के छः कारणों के सिवाय बलवृद्धि आदि के लिए भोजन करना । आदानभाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति के दो अतिचार
383
१०५. भण्डोपकरण लेना- भण्डोपकरण वस्त्र, पात्र आदि बिना देखे, बिना पूँजे अयतना से लेना । १०६. भण्डोपकरण रखना- भण्डोपकरण वस्त्र, पात्र आदि बिना देखे, बिना पूँजे अयतना से रखना । उच्चार-प्रस्रवण- खेल - सिंघाण जल्ल परिष्ठापनिका समिति के १० अतिचार (निम्नांकित का
पालन न करने पर अतिचार लगता है)
१०७. अणवयसंलोए परस्स- जहाँ किसी का आना जाना न हो और न दृष्टि पड़ती हो ।
१०८. अणुवघा - जहाँ परठने से आत्मा, संयम और प्रवचन का उपघात न हो।
१०९. सम्मे- जहाँ ऊँची-नीची भूमि न हो अर्थात् समतल भूमि हो ।
११०. अज्झसिरे- जहाँ पोलार भूमि न हो।
१११. अचित्त कालकयम्मि- जहाँ थोड़े काल पहले अग्नि जली हो। ११२. विछिन्नो- जहाँ एक हाथ लम्बी चौड़ी भूमि हो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org