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115,17 नवम्बर 2006
जिनवाणी ६६. प्रामित्य - साधु के लिए उधार लाना। ६७. परिवर्तित - साधु के लिए अट्टा-सट्टा करके लाना। ६८. अभिहत- साधु के लिए दूर से लाकर देना। ६९. उद्भिन्न- साधु के लिए लिप्त-पात्र का मुख खोल कर घृत आदि देना। ७०. मालापहृत- ऊपर की मंजिल से या छींके वगैरह से सीढ़ी आदि से उतार कर देना। ७१. आच्छेद्य- दुर्बल से छीन कर देना। ७२. अनिसृष्ट- साझे की चीज दूसरों की आज्ञा के बिना देना। ७३. अध्यवपूरक- साधु को गाँव से आया जान कर अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में और बढ़ा देना। उत्पादन के १६ दोष ७४. धात्री- धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिला कर, हँसा-रमा कर आहार लेना। ७५. दूती- दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना। ७६. निमित्त- शुभाशुभ निमित्त बताकर आहार लेना। ७७. आजीव- आहार के लिए जाति, कुल आदि बताना। ७८. वनीपक- गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना। ७९. चिकित्सा- औषधि आदि बताकर आहार लेना। ८०. क्रोध- क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना। ८१. मान- अपना प्रभुत्व जमाते हुए आहार लेना। ८२. माया- छल कपट से आहार लेना। ८३. लोभ- सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना। ८४. पूर्वपश्चात्संस्तव- दान-दाता के माता-पिता अथवा सास-सुसर आदि से अपना परिचय बताकर
भिक्षा लेना। ८५. विद्या- जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग करना। ८६. मंत्र- मंत्र-प्रयोग से आहार लेना। ८७. चूर्ण- चूर्ण आदि वशीकरण का प्रयोग करके आहार लेना। ८८. योग- सिद्धि आदि योग-विद्या का प्रदर्शन करना। ८९. मूलकर्म- गर्भस्तंभ आदि के प्रयोग बताना। गृहणैषणा के १० दोष ९०. शंकित- आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी लेना।
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