SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 375 ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी जिज्ञासा- श्रमण सूत्र के तैंतीस बोल के चौथे बोल में 'पडिक्कमामि चउहिं झाणेहिं' बोला जाता है तथा अन्त में मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है। आर्त्त-रौद्र ध्यान का मिच्छामि दुक्कडं तो समझ में आया, किन्तु धर्मध्यान और शुक्लध्यान का अतिचार कैसे? समाधान- आर्त और रौद्र ध्यान के करने से तथा धर्म और शुक्ल ध्यान के न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण (मिच्छामि दुक्कडं) करता हूँ। आगम की शैली है- जैसे श्रावक प्रतिक्रमण में- इच्छामि ठामि में- तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं... का अर्थ भी तीन गुप्तियों के नहीं पालन व चार कषायों के सेवन का प्रतिक्रमण करना ही समझा जाता है। इस ३३ बोल में ३ गुप्ति, ब्रह्मचर्य की नववाड़, ग्यारह श्रावक प्रतिमा, १२ भिक्षु प्रतिमा, २५ भावना, २७ अणगार गुण व ३२ योग संग्रह आदि में धर्म-शुक्ल ध्यान के समान नहीं करने से, नहीं पालने से का मिच्छामि दुक्कडं है, जबकि अनेक में उनके सेवन का व कइयों में श्रद्धान प्ररूपण विपरीतता का मिच्छामि दुक्कडं है। जिज्ञासा- ब्रह्मचर्य की नववाड़ के सातवें बोल में दिन-प्रतिदिन सरस आहार नहीं करने की बात कही गई है। जबकि उत्तराध्ययन के १६वें अध्ययन तथा समवायांग के ९वें समवाय की जो गाथा दी गई है उसमें दिन-प्रतिदिन का उल्लेख नहीं है? इस परिवर्तन का क्या उद्देश्य हो सकता है? वैसे भी आगम की गाथा का तोड़-मरोड़ कर अर्थ नहीं करना चाहिये। समाधान- उत्तराध्ययन सूत्र के १७वें अध्याय की १५वीं गाथा में 'दुद्ध-दही विगईओ, आहारेइ अभिक्खणं....' में प्रतिदिन विगय के सेवन करने वाले को पापी श्रमण कहा है। समवायांग सूत्र ‘तित्थयराई' गाथा ३१ उसभरस पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगनाहरस। सेसाणं परमण्णं अभियरसरसोवम आसि ।। २३ तीर्थंकरों का प्रथम पारणक अमृतरस के समान खीर से होना बताया। अंतगड़ सूत्र के ८वें वर्ग में रानियों (साध्वियों) के तप में सर्वकामगुण अर्थात् विगयसहित प्रथम परिपाटी के पारणे कहे हैं और भी अनेकानेक आगम कथा साहित्य के दृष्टान्त भरे पड़े हैं। अतः अर्थ में आगमसम्मत उल्लेख समाविष्ट कर दिया गया। यह तोड़-मरोड़ कर अनुवाद करना नहीं, अपितु भावों का युक्तिसंगत प्रस्तुतीकरण है। अन्यथा तीर्थंकर सहित ये सभी महान् आत्माएँ विराधक सिद्ध हो जायेंगी। महान् अनर्थ हो जायेगा। अविनय आशातना से कर्मबंध हो जायेगा। जिज्ञासा- ३३ बोल श्रमणसूत्र का ही एक भाग है उसके उपरान्त भी ३३ बोल के हिन्दीकरण करने की क्या आवश्यकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy