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1376 | जिनवाणी
115,17 नवम्बर 2006|| समाधान- हिन्दी क्या अब तो अंग्रेजी में भी अनुवाद करना पड़ेगा। समय-समय पर प्रचलित भाषा में विवेचन करना अनुपयुक्त कैसे? पहले संस्कृत में था, आज गुजरात में गुजराती में है, शेष स्थानों पर हिन्दी में है। मूल सुरक्षित है, प्रतिक्रमण में उसे ही बोलते हैं, शेष विवेचन, मात्र उचित ही नहीं, उपादेय व उपयोगी भी
जिज्ञासा- भाव वन्दना में पहले पद में केवल तीर्थंकर भगवन्तों को वन्दना की गई है या केवली भगवन्तों का भी समावेश किया गया है। यदि पहले पद में केवली भगवान् का समावेश नहीं किया गया है तो कौनसे पद में किया गया है? यदि पाँचवें पद में किया गया है तो वे साधु के समकक्ष नहीं होते हैं। यही कारण है कि शिष्य को केवलज्ञान होने पर उनके कंधे पर बैठे हुए गुरु को केवली की आशातना का पश्चात्ताप हुआ। समाधान- इधर की परम्परा प्रथम पद में ही बोलती है, अतः शेष समाधान पाँचवें पद में बोलने वालों से प्राप्त करना उचित होगा। जिज्ञासा- 'वोसिरामि' के स्थान पर 'वोसिरे' शब्द का प्रयोग कहाँ तक उचित है? समाधान- स्वयं को जब प्रत्याख्यान करना हो तो वोसिरामि' शब्द बोला जाता है तथा दूसरे को प्रत्याख्यान कराते समय 'वोसिरे' शब्द का प्रयोग किया जाता है। मान लीजिए, कोई उपवास माँग रहा है, कराने वाले को तो करना नहीं, 'वोसिरामि' बोलने से 'मैं वोसराता हूँ'- स्वयं के त्याग हो जायेगा। अतः दूसरे को त्याग कराने हेतु व्याकरण की दृष्टि से 'वोसिरे' शब्द का प्रयोग उचित है।
तीर्थंकर भगवन्त आदि दीक्षा का प्रत्याख्यान करते समय ‘वोसिरामि' नहीं बोल सकते। स्वयं की दीक्षा में 'वोसिरामि' बोलते हैं। जब दीक्षा प्रदाता तीर्थंकर भगवन्त सैकड़ों-हजारों मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान कर सकते हैं तो पच्चक्खाण में वोसिरे' बोलने में क्या आपत्ति? जिज्ञासा- स्थानकवासी परम्परा में दो प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में क्या धारणा है? समाधान- प्रमुखतया तीन प्रकार की परिपाटी चल रही है- १. तीन चौमासी और एक संवत्सरी- इन चार दिवसों में दो प्रतिक्रमण करना। २. केवल कार्तिक चौमासी को दो प्रतिक्रमण करना। ३. दो प्रतिक्रमण कभी नहीं करना।
जिज्ञासा- इस विविधता का क्या हेतु है? समाधान- ज्ञाताधर्मकथा के पाँचवें अध्याय में शैलक राजर्षि जी को पंथकजी ने कार्तिक चौमासी के दिन दैवसिक प्रतिक्रमण में जागृति प्राप्त नहीं होने पर चातुर्मासी प्रतिक्रमण की आज्ञा ली, परिणामस्वरूप प्रमाद का
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