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| जिनवाणी ||
|15,17 नवम्बर 2006|| में है। अतः दिगम्बर का लोगस्स मूल होने का प्रश्न ही नहीं और फिर कुन्दकुन्दाचार्य तो बहुत बाद में हुए, गणधर प्रणीत वाङ्मय अति प्राचीन है। लोगस्स ही क्या, कितने ही अन्यान्य सूत्र गाथाओं में समानता है, पर इससे उनका मौलिक और श्वेताम्बरों का अमौलिक नहीं कहा जा सकता है। जिज्ञासा- खमासमणो का पाठ उत्कृष्ट वंदना के रूप में मान्य है । तिक्खुत्तो के पाठ को मध्यम वन्दना तथा ‘मत्थएण वंदामि' को जघन्य वंदना कहा गया है, किन्तु आगम में जहाँ कहीं भी तीर्थंकर भगवन्तों
और संतों को वन्दना का वर्णन आया है वहाँ तिक्खुत्तो के पाठ से वंदना का उल्लेख है। जब तीर्थंकर भगवन्तों को तिक्खुत्तो से वन्दना की जाती है तो उत्तम वन्दना किसके लिए? मत्थएण वंदामि का भी क्या औचित्य है? समाधान- उत्कृष्ट वंदना, मध्यम वंदना और जघन्य वंदना- यह आगम में नहीं है। वहाँ तो द्रव्य-भाव आदि का भेद है। यह पश्चाद्वर्ती महापुरुषों की प्रश्नशैली की देन है। भावपूर्वक करने पर तीनों ही आत्महितकारी हैं। उत्कृष्ट वंदना उभयकाल होती है, जो प्रत्येक प्रतिक्रमण में ३६ आवर्तन सहित भाव विभोर करने वाली है। सामान्य रूप से भी यदि आप श्रमण सूत्र (उपाध्याय अमरमुनि जी) में इसका अर्थ व विवेचन पढ़ेंगे तो भाव विभोर हुए बिना नहीं रह सकते।
आवश्यक की वन्दना के लिए भी तीन बार तिक्खुत्तो से वंदना की जाती है, अस्तु उत्कृष्ट और मध्यम वंदना अपेक्षा से कहना अयुक्त नहीं।
नमस्कार सर्वपाप प्रणाशक है, वंदामि से वंदना गृहीत होती है, अतः नमस्कार को वंदना नहीं कहा। यूँ तो लोगस्स, नमोत्थुणं भी स्तुति, भक्ति, विनय के ही सूत्र हैं, पर वंदना में सम्मिलित नहीं। अस्तु नवकार, भक्ति, स्तुति को वंदना में नहीं कह, ‘मत्थएण वंदामि' के शब्दों की अल्पता से जघन्य में कह दिया।
प्रायः ‘नमंसामि वंदामि' एकार्थक भी हैं, साथ-साथ होने पर काया से नमस्कार व मुख से गुणगान अर्थ करना होता है। संस्कृत में मूलतः ‘वदि-अभिवादनस्तुत्योः ' (To Bow down and to praise) धातु से वंदामि शब्द बनता है। अतः इस एक में दोनों 'स्तुति और नमस्कार' सम्मिलित हैं। तिक्खुत्तो में भी दोनों बार अलग-अलग अर्थ कर इन दोनों को सूचित किया है। अतः बड़ी संलेखना में उसे 'नमोत्थुणं' शब्द से गुणगान सहित नमस्कार कह दिया गया। जिज्ञासा- चत्तारि मंगलं का पाठ क्या गणधर भी बोलते थे? समाधान- आवश्यक सूत्र के सभी पाठ आवश्यक के रचनाकार (सूत्रकार) की रचना होने चाहिए। जब वह गणधर प्रणीत है- छेदोपस्थापनीय चारित्र धारक को उभयकाल करना अनिवार्य है, तो गणधर भगवन्त भी दोनों समय आवश्यक (प्रतिक्रमण) करते समय मांगलिक भी बोलेंगे ही।
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