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________________ 354 जे णो जेणो करेंति | ६००० मणसा कारवेंति १०० पृथ्वी १० क्षान्ति ६००० वयसा २००० निज्जिया आहरसन्ना |५०० ५०० श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय १०० २००० भयसन्ना अपू १० मुक्ति जे नाणु Jain Education International मोयंति ६००० कायसा २००० मेहुणसन्ना ५०० घ्राणेन्द्रिय १०० ते १० आर्जव जिनवाणी परिग्गहसन्ना ५०० रसनेन्द्रिय १०० वायु १० मार्दव १० आरम्भ x १० यति धर्म = १०० भेद पाँचों इन्द्रियों के भी प्रत्येक के १०० = १०० x ५ =५०० ये प्रत्येक संज्ञा ५०० भेद = ५०० x ४ = २००० २००० x ३ योग = ६००० ६००० x ३ करण = १८००० शीलांग रथ धारा स्पर्शनेन्द्रिय १०० वनस्पति १० लाघव 15.17 नवम्बर 2006 बेड़. १० सत्य तेइ. चउ. १० १० संयम तप (२) यथाजात मुद्रा - गुरुदेव के चरणों में वन्दन क्रिया करने के लिये शिष्य को यथाजात मुद्रा का अभिनय करना चाहिए। दोनों ही 'खमासमण सूत्र' यथाजात मुद्रा में पढ़ने का विधान है। यथाजात का अर्थ है- यथा-जन्म अर्थात् जिस मुद्रा में बालक का जन्म होता है, उस जन्मकालीन मुद्रा के समान मुद्रा । जब बालक माता के गर्भ में जन्म लेता है, तब वह नग्न होता है, उसके दोनों हाथ मस्तक पर लगे हुए होते हैं। संसार का कोई भी वासनामय प्रभाव उस पर नहीं पड़ा होता है। वह सरलता, मृदुता, विनम्रता और सहृदयता का जीवित प्रतीक होता है । अस्तु शिष्य को भी वन्दन के लिए इसी प्रकार सरलता, मृदुता, विनम्रता एवं सहृदयता का जीवित प्रतीक होना चाहए। बालक अज्ञान में है, अतः वहाँ कोई साधन नहीं है । परन्तु साधक तो ज्ञानी है। वह सरलता आदि गुणों को साधना की दृष्टि से विवेकपूर्वक अपनाता है। जीवन के कण-कण में नम्रता का रस बरसाता है। गुरुदेव के समक्ष एक सद्यः संजात बालक के समान दयापात्र स्थिति में प्रवेश करता है और इस प्रकार अपने को क्षमा- भिक्षा का योग्य अधिकारी प्रमाणित करता है। For Private & Personal Use Only पंचे. अजीव १० १० ब्रह्मचर्य अकिंचन यथाजात मुद्रा में वन्दनार्थी शिष्य सर्वथा नग्न तो नहीं होता, परन्तु रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता है और इस प्रकार बालक के समान नग्नता का रूपक अपनाता है । भयंकर शीतकाल में भी यह नग्न मुद्रा अपनाई जाती है। प्राचीन काल में यह पद्धति रही है। परन्तु आजकल तो कपाल पर दोनों हाथों को लगाकर प्रणाम मुद्रा कर लेने में ही यथाजात मुद्रा की पूर्ति मान ली जाती है। www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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