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________________ 353 ||15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 33] ६. अकाले कओ सज्झाओ एवं असज्झाए सज्झाइयं में अन्तर- जिस सूत्र के पढ़ने का जो काल न हो, उस समय में उसे पढ़ना 'अकाले कओ सज्झाओ अतिचार है। सूत्र दो प्रकार के हैं- कालिक और उत्कालिक। जिन सूत्रों को पढ़ने के लिए प्रातःकाल, सायंकाल आदि निश्चित समय का विधान है, वे कालिक कहे जाते हैं। जिनके लिए समय की कोई मर्यादा नहीं, वे उत्कालिक हैं। कालिक सूत्रों को उनके निश्चित समय के अतिरिक्त पढ़ना 'अकाले कओ सज्झाओ' अतिचार है। ज्ञानाभ्यास के लिए काल का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। अनवसर की रागिनी अच्छी नहीं होती। यदि साधक शास्त्राध्ययन करता हुआ काल का ध्यान न रखेगा तो कब तो प्रतिलेखना करेगा, कब गोचरचर्या करेगा और कब गुरु भगवंतों की सेवा करेगा? स्वाध्याय का समय होते हुए भी जो अनावश्यक कार्य में लगा रहकर आलस्यवश स्वाध्याय नहीं करता वह ज्ञान का अनादर करता है। ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में बताया है कि ४ कारणों से निर्ग्रन्थ-निग्रंथियों को अतिशय ज्ञान'/दर्शन प्राप्त होते-होते रुक जाते हैं। जिसमें तीसरा कारण 'पुव्वारत्तावरतकालसमयंसि णो धम्मजागरियं जागरइत्ता भवति।' जो रात्रि के पहले और अन्तिम समय में (भाग में) धर्म जागरण नहीं करते उन्हें अतिशय ज्ञान प्राप्त नहीं होता। अतः काल के समय में प्रमाद कर अकाल में स्वाध्याय करना अतिचार है। असज्झाए सज्झाइयं का तात्पर्य है- अस्वाध्याय में स्वाध्याय करना। अपने या पर के (व्रण, रुधिरादि) अस्वाध्याय में तथा रक्त, माँस, अस्थि एवं मृत कलेवर आस-पास में हो तो वहाँ अस्वाध्याय में तथा चन्द्रग्रहणादि ३४ (३२) अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने को ‘असज्झाए सज्झाइयं' अतिचार कहते हैं। ‘अकाले कओ सज्झाओ' में केवल काल की अस्वाध्याय है, लेकिन ‘असज्झाए सज्झाइयं' में काल के साथ-साथ अन्य आकाश संबंधी, औदारिक संबंधी कुल ३४ (३२) प्रकार के अस्वाध्याय का समावेश हो जाता है। इसके दो भेद हैं- १. आत्मसमुत्थ- स्वयं के रुधिरादि से। २. परसमुत्थ- दूसरों से होने वाले को परसमुत्थ कहते हैं, जबकि 'अकाले कओ...' का कोई अवान्तरभेद नहीं है। प्रश्न टिप्पणी लिखिए- १. अठारह हजार शीलांग रथ २. यथाजात मुद्रा ३. यापनीय ४. श्रमण ५. अवग्रह ६. निर्ग्रन्थ प्रवचन। उत्तर (१) अठारह हजार शीलांग रथ जे नो करेंति मणसा, निज्जियाहार-सन्ना-सोइंदिए। पुढवीकायारंभे, खंतिजुआ ते मुणी वंदे ।। जोगे करणे सण्णा, इंदिय भोम्माइ समणधम्मे य । अण्णोणेहि अब्भत्था, अट्ठारह सीलसहस्साई ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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