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________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी 355 __ यथाजात का अर्थ 'श्रमणवृत्ति धारण करते समय की मुद्रा' भी किया जाता है। श्रमण होना भी संसार गर्भ से निकलकर एक विशुद्ध आध्यात्मिक जन्म ग्रहण करना है। जब साधक श्रमण बनता है तब रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त और कुछ भी अपने पास नहीं रखता है एवं दोनों हाथों को मस्तक से लगाकर वन्दन करने की मुद्रा में गुरुदेव के समक्ष खड़ा होता है। अतः मुनि दीक्षा ग्रहण करने के काल की मुद्रा भी यथाजात मुद्रा कहलाती है। (३) यापनीय- यापनीय कहने का अभिप्राय यह है कि 'मैं' अपने पवित्र भाव से वन्दन करता हूँ। मेरा शरीर वन्दन करने की सामर्थ्य रखता है, अतः किसी दबाव से लाचार होकर गिरी-पड़ी हालत में वन्दन करने नहीं आया हूँ। अपितु वंदना की भावना से उत्फुल्ल एवं रोमांचित हुए सशक्त शरीर से वन्दना के लिए तैयार हुआ हूँ। सशक्त एवं समर्थ शरीर ही विधिपूर्वक धर्मक्रिया का आराधन कर सकता है। दुर्बल शरीर प्रथम तो धर्मक्रिया कर नहीं सकता और यदि किसी के भय से या स्वयं हठाग्रह से करता भी है तो वह अविधि से करता है। जो लाभ की अपेक्षा हानिप्रद अधिक है। धर्म-साधना का रंग स्वस्थ एवं सबल शरीर होने पर ही जमता है। यापनीय शब्द की यही ध्वनि है, यदि कोई सुन और समझ सके तो? 'जावणिज्जाए निसीहियाए त्ति अणेण शक्रत्वं विधि य दरिसिता' यात्रा के समान ‘यापनीय' शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यापनीय का अर्थ है- मन और इन्द्रिय आदि पर अधिकार रखना। अर्थात् उनको अपने वश में- नियंत्रण में रखना। मन और इन्द्रियों का अनुपशान्त रहना, अनियन्त्रित रहना, अकुशलता है, अयापनीयता है और इनका उपशान्त हो जाना नियन्त्रित हो जाना ही कुशलता है, यापनीयता है। कुछ हिन्दी टीकाकार- पं. सुखलाल जी ने 'जवणिज्जं च भे' की व्याख्या करते हुए लिखा है कि आपका शरीर, मन तथा इन्द्रियों की पीड़ा से रहित है।' आचार्य हरिभद्र ने भी इस संबंध में कहा है- 'यापनीयं चेन्द्रिय- नोइन्द्रियोपशमादिना अकारेणं भवतां शरीरमिति गम्यते ।' यहाँ इन्द्रिय से इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से मन समझा गया है और ऊपर के अर्थ की कल्पना की गई है। परन्तु भगवती सूत्र में यापनीय का निरूपण करते हुए कहा है कि- यापनीय दो प्रकार के हैंइन्द्रिययापनीय और नोइन्द्रिययापनीय। पाँचों इन्द्रिय का निरुपहत रूप से अपने वश में होना, इन्द्रिय यापनीयता है और क्रोधादि कषायों का उच्छिन्न होना, उदय न होना , उपशान्त हो जाना, नोइन्द्रिय यापनीयता है। "जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते तंजहा! इन्द्रियाजवणिज्जे य नोइन्द्रिय जवणिज्जे य' आचार्य अभयदेव भगवतीसूत्र के उपर्युक्त पाठ का विवेचन करते हुए लिखते हैं-यापनीयं = मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजकइन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः । भगवती सूत्र में नोइन्द्रिय से मन नहीं, किन्तु कषाय का ग्रहण किया गया है, कषाय चूंकि इन्द्रिय सहचरित होते हैं, अतः नो इन्द्रिय कहे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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