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________________ 304 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 पृच्छा करना, अपने से हुई जानी-अनजानी अविनय आशातना की क्षमायाचना, दिवस भर में लगे अतिचारों की निंदा करना, स्वयं में उन जैसे गुण विकसित हो ऐसी कामना करना आदि है। इसे वंदना का उत्कृष्ट रूप बताया है। प्रश्न श्रावक के बारह व्रतों में कितने स्वतंत्र हैं एवं कितने परतंत्र है? उत्तर प्रथम से ग्यारहवाँ व्रत स्वतन्त्र एवं बारहवाँ व्रत परतन्त्र है। क्योंकि बारहवें व्रत की साधना सुपात्र दान देने से संबंधित है। सुपात्र अन्य होता है, जिसके उपलब्ध होने पर ही बारहवाँ व्रत सम्पन्न होता है। प्रश्न उत्कृष्ट वंदना में दोनों घुटनों को ऊँचा क्यों किया जाता है? उत्तर यह आसन गर्भाशयवत् कोमलता एवं विनय का प्रतीक है। इसलिए विनयसम्पन्नता के प्रकटीकरण की भावना से ऐसे आसन का कथन पूर्वाचार्यों द्वारा किया गया है। प्रश्न पाँच पदों की वंदना पंचांग नमाकर घुटने झुकाकर क्यों की जाती है? उत्तर चूंकि यह आसन शरणागति अर्थात् अर्पणता का सूचक है। “परमभावे तिष्ठति असौ परमेष्ठी।'' ये हमारे लिए परमाराध्य हैं। इनकी शरण ग्रहण करके ही हम भी परमभाव में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। अतः यह वंदना इसी आसन (मुद्रा) में की जाती है। प्रश्न प्रतिक्रमण के छह आवश्यकों को देव-गुरु-धर्म में विभाजित कीजिये। उत्तर देव का- द्वितीय चतुर्विंशतिस्तव । गुरु का- तीसरा वंदना। धर्म का- प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ट (सामायिक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग व प्रत्याख्यान।) प्रश्न अन्य मतों में प्रचलित संध्या आदि में और जैनों के आवश्यक में क्या अंतर है? दूसरे मतों में प्रचलित संध्यादि में केवल ईश्वर-स्मरण और प्रार्थना आदि की मुख्यता रहती है, ज्ञानादि धर्मो की स्मृति तथा अपने पापों के प्रतिक्रमण की मुख्यता नहीं रहती, पर जैनों के आवश्यक में ज्ञानादि धर्मो की स्मृति तथा अपने पापों के प्रतिक्रमण की मुख्यता है जो अंतरंग दृष्टि से (उपादान दृष्टि से) अधिक आवश्यक है, इसलिए जैन धर्म में प्रतिपादित आवश्यक विशेष प्रयोजन को लिए हुए होने से और बढ़कर है। प्रश्न पाँचवा, छठा और सातवाँ व्रत प्रायः एक करण-तीन योग से क्यों लिए जाते हैं? क्योंकि श्रावक अपने पास मर्यादा उपरान्त परिग्रह हो जाने पर जैसे वह उसे धर्म या पुण्य में व्यय करता है, वैसे ही वह अपने पुत्र/पुत्री आदि को भी देने का ममत्व त्याग नहीं पाता। इसी प्रकार जिसका अब कोई स्वामी नहीं रह गया हो, ऐसा कहीं गड़ा हुआ परिग्रह मिल जाये, तो भी वह उसे अपने स्वजनों को देने का ममत्व त्याग नहीं पाता। अथवा अपने पुत्रादि, जिन्हें परिग्रह बाँटकर पृथक् कर अपने-अपने व्यवसाय में स्थापित कर दिया हो, उनको व्यावसायिक सलाह देने का प्रसंग भी उपस्थित हो ही जाता है। उत्तर उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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