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________________ 13051 ||15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी इसी प्रकार छठे सातवें व्रत की भी स्थिति है, जैसे श्रावक अपनी की हुई दिशा की मर्यादा के उपरांत स्वयं तो नहीं जाता, पर कई बार उसे अपने पुत्रादि को विद्या, व्यापार, विवाह आदि के लिए भेजने का प्रसंग आ जाता है। ऐसे ही उपभोग-परिभोग वस्तुओं की या कर्मादानों की जितनी मर्यादा की है, उसके उपरांत तो वह स्वयं भोगोपभोग या कर्म नहीं करता, परन्तु उसे अपने पुत्रादि को कहने का अवसर आ जाता है। इसलिए श्रावक पाँचवें, छठे और सातवें व्रत का प्रायः 'मैं नहीं करूँगा' इतना ही व्रत ले पाता है, परन्तु 'मैं नहीं कराऊँगा', यो व्रत नहीं ले पाता। विशिष्ट श्रावक इन व्रतों को दो करण तीन योग आदि से भी ग्रहण कर सकते हैं। प्रश्न ग्यारहवाँ व्रत, नवमें व्रत से विशिष्ट है फिर भी ग्यारहवें (पौषध) में तो निद्रा, निहार आदि की छूट है, परन्तु नवमें (सामायिक) में नहीं। यह विरोध क्यों? उत्तर चूंकि सामायिक का काल तो एक मुहूर्त से लेकर आगे सुविधानुसार है। यह काल अल्प है, अतः वह इन छूटों के बिना भी हो सकती है। और यदि ये आगार सामायिक में रखे जायें तो फिर सामायिक में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की कोई आराधना नहीं हो पायेगी तथा पौषध अहोरात्रि या न्यूनतम चार प्रहर का होता है। अतः वह इन छूटों के बिना सामान्य लोगों को पालन करना कठिन होता है। शरीर का भी अपना एक विज्ञान है। इसका पालन किए बिना पौषध में ज्ञानादि की आराधना में समाधि नहीं रहेगी। प्रश्न कायोत्सर्ग आवश्यक में सदा समान संख्या में लोगस्स का ध्यान क्यों नहीं किया जाता है? उत्तर दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में पिछले लगभग १५ मुहूर्त (१२ घण्टे) जितने अल्प समय में लगे अतिचारों की ही शुद्धि करनी होती है। अतः उस शुद्धि के लिए मात्र चार लोगस्स का ही ध्यान पर्याप्त होता है, पर पाक्षिक प्रतिक्रमण में १५ दिनों में लगे अतिचारों की शुद्धि करनी होती है, अतः चार लोगस्स से दुगुने ८ लोगस्स का ध्यान आवश्यक होता है तथा चातुर्मासिक में चार माह में लगे अतिचारों की एवं सांवत्सरिक में वर्षभर में लगे अतिचारों की शुद्धि करनी होती है। अतः क्रमशः तीन गुने १२ व पाँच गुने २० लोगस्स का ध्यान आवश्यक होता है। आचार्यों द्वारा इनकी संख्या उपर्युक्तानुसार निर्धारित की गई हैं। संज्ञी पंचेद्रिय तिर्यंच क्या अणुव्रतादि का पालन कर सकते हैं? यदि हाँ तो कैसे? उत्तर संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच श्रावक के प्रथम से ग्यारहवें व्रत तक पालन कर सकते हैं। बारहवें अतिथि संविभाग व्रत का पालन वे नहीं कर सकते हैं। किन्हीं जीवों को विशुद्ध परिणामों की प्रवृत्ति होने के कारण उनके ज्ञानावरणीय कर्म का विशेष क्षयोपशम होने से उन्हें जातिस्मरणज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। उस जातिस्मरण से वे जानने लगते हैं कि मैंने पहले के मनुष्य भव में व्रत प्रत्याख्यान को ग्रहण कर भंग कर डाला था। फलस्वरूप मैं मरकर तिर्यंच गति को प्राप्त हुआ हूँ। इस जन्म में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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