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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
303
प्रश्न
जैन दर्शन में शरीर विज्ञान के सिद्धांतों का समुचित पालन किया जाता है। प्रतिक्रमण के संदर्भ में स्पष्ट कीजिये ।
उत्तर
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उत्तर
कोत्सर्ग की साधना हेतु तस्सउत्तरी का पाठ बोलना आवश्यक है एवं इसमें शरीर पर से ममता का त्याग किया जाता है। तस्सउत्तरी के पाठ में यह ध्वनित होता है कि शरीर के प्राकृतिक कार्यों को नहीं रोका जा सकता है तथा शरीर के बारह प्रकार व्यापारों का आगार रखकर ही कायोत्सर्ग साधना की प्रतिज्ञा की जाती है जैसे-छींक आना या सूक्ष्म रूप से अंग का हिलना आदि ।
श्रावक के बारह व्रतों में एक से आठ तक के व्रत जीवन पर्यंत तक के होते हैं, जबकि ९-१०-११ वें व्रतों का काल सीमित समय का होता है। काल में इस अंतर का कारण स्पष्ट कीजिये ।
९ व्रत सामायिक व्रत है। इसका काल एक दो मुहूर्त्त या नियम पर्यंत होता है । १०वें देशावकाशिक व्रत में पहले जिन (छठे, सातवें) व्रतों में जीवनपर्यंत मर्यादाएँ की हैं उनकी संक्षेप में अहोरात्र के लिए मर्यादा करते हैं। ११वाँ प्रतिपूर्ण पौषध व्रत का काल चारों आहार छोड़कर उपवास सहित आठ प्रहर का होता है। श्रावक एक से आठवाँ व्रत संसार के कार्यों में रहते हुए भी जीवन पर्यंत धारण कर सकता है। नवमाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ व्रत साधना रूप है, इनको श्रावक जीवन पर्यंत धारण नहीं कर सकता, अतः संक्षिप्त साधना सामायिक के रूप में एवं विशेष साधना दया या पौषध के रूप में अहोरात्र प्रमाण में करता है। दसवाँ व्रत छठे एवं सातवें व्रतों का संक्षिप्त रूप है। अतः यह भी श्रावक के लिए अहोरात्र प्रमाण का होता है, क्योंकि इन व्रतों की आराधना करते हुए श्रावक गृहस्थ के कर्त्तव्यों का व्यवस्थित निर्वाह नहीं कर सकता है । अतः ये व्रत काल की सीमित मर्यादा से ही पालन किए जा सकते हैं, आजीवन नहीं ।
सामायिक लेने से पूर्व तीन बार विधिवत् वंदन करते हैं, पारते समय नहीं करते हैं। ऐसा क्यों? सामायिक लेने से पूर्व उद्देश्य यह है कि हम गुरु महाराज से आज्ञा लेकर आस्रव को छोड़कर संवर में जा रहे हैं। जबकि सामायिक पारते हैं तो संवर को छोड़कर पुनः आस्रव की ओर बढते हैं, इसीलिए पारते समय वंदन नहीं करते हैं। क्योंकि संवर से आस्रव की ओर जाने के लिये गुरुभगवंतों की आज्ञा नहीं है।
मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों के प्रतिक्रमण करने में क्या अंतर है?
सम्यग्दृष्टि यदि प्रतिक्रमण करेगा तो उसकी क्रियाओं से पापों का क्षय अर्थात् कर्मों की निर्जरा तथा पुण्य का बन्ध होगा, जबकि मिथ्यादृष्टि प्रतिक्रमण करेगा तो पुण्य का बंध तो होगा, पर कर्मो की निर्जरा नहीं होगी ।
प्रतिक्रमण में 'इच्छामि खमासमणो' पाठ का उद्देश्य क्या है ?
इस पाठ का उद्देश्य शिष्य को गुरु के प्रति कर्त्तव्य की जानकारी प्रदान करना, उनकी सुखसाता की
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