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________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी * उत्तराध्ययन सूत्र २९वाँ अध्ययन के ७३ बोल की पृच्छा में ११वाँ बोल है कि प्रतिक्रमण करने से जीव के व्रतों के छिद्र बंद होते हैं। आस्रव रुकते हैं। साधक आठ प्रवचन माता में सावधान होता है, संयम में विचरता है। है किसी वाहन में बैठकर अल्पकालीन संवर धारण कर प्रतिक्रमण के काल में प्रतिक्रमण किया जा सकता है। संवर करने का पाठ- द्रव्य से ५ आस्रव १८ पाप का त्याग, क्षेत्र से (वाहन में लगने वाले पाप और आस्रव त्याग के अतिरिक्त पाप एवं आस्रव का त्याग) क्षेत्र से- निर्धारित क्षेत्र तक पहुँचू तब तक, काल से- स्थिरता प्रमाणे, भाव से- १ करण १ योग से संवर का पच्चक्खाण "तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।" है अढाई द्वीप के बाहर के तिर्यंच श्रावक एवं साधक चूँकि वहाँ चन्द्र-सूर्य अचल हैं, स्थिर हैं। अतः वे जातिस्मरण ज्ञान या अवधि ज्ञान के आधार से सामायिक एवं प्रतिक्रमण (भाव से) करते हैं। * काउस्सग्ग में ध्यान विषयक- आवश्यकनियुक्ति की गाथा नं. १५३१, १५३२, १५३३ एवं प्रवचनसारोद्धार में गाथा नं.१८३, १८४, १८५ में देवसिय प्रतिक्रमण में १०० श्वासोच्छ्वास प्रमाण, राइय में ५० श्वासोच्छ्वास, पक्खी प्रतिकमण में ३०० श्वासोच्छ्वास, चौमासी में ५०० श्वासोच्छ्वास एवं संवत्सरी में १००८ श्वासोच्छ्वास चिन्तन की विधि बताई है। * व्रत धारण नहीं किये हैं तो प्रतिक्रमण क्यों करें, ऐसा कहना उचित नहीं है। नीचे देखकर चलें और बिना देखे चलें दोनों अवस्थाओं में पैर में काँटा लग जाय तो निकालना ही है। अग्नि का जानकार और जानकार नहीं होने पर भी अग्नि में हाथ डालेगा तो हाथ जलेगा ही, क्योंकि प्रतिक्रमण में मात्र लगे हुए पापों की आलोचना ही नहीं परन्तु श्रद्धा-प्ररूपणा रूप, क्षमायाचना रूप एवं स्वाध्याय रूप भी हैं। अतः व्रत धारण नहीं किये हों तो भी प्रतिक्रमण करना उचित ही है। * प्रतिक्रमण का जघन्य काल जघन्य पौरुषी का चौथाई भाग अर्थात् ३६ मिनट प्रमाण (आधार उत्तराध्ययन सूत्र का २६वाँ अध्ययन) और उत्कृष्ट काल सवा घंटा प्रमाण समझना चाहिये। अर्थात् राइय प्रतिक्रमण सूर्योदय के पूर्व तक पूरा हो जाना चाहिये। देवसिय प्रतिक्रमण सूर्यास्त के बाद प्रारम्भ होना चाहिए। * पर्व प्रतिक्रमण मात्र संध्या में करने की आगमिक परम्परा रही हुई है, अतः पाक्षिक, चौमासी, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मात्र संध्या के समय ही किये जाते हैं। प्रातःकाल में तो मात्र राइय प्रतिक्रमण ही किया जाता है। तीर्थंकर गोत्र बाँधने के २० बोलों में ज्ञाताधर्मकथा सूत्र अध्ययन ८, प्रवचन सारोद्धार द्वार १० एवं आवश्यक सूत्र नियुक्ति के अनुसार ११ वाँ बोल यह है कि भावपूर्वक उभयकाल षडावश्यक करते रहने से उत्कृष्ट रसायन आवे तो कर्मो की क्रोड़ खपावे और तीर्थंकर नाम कर्म का बंध करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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