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15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी,
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प्रतिक्रमण : कतिपय प्रमुख बिन्दु
श्री राणीदान भंसाली
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* कषाय और योग के कारण आत्मा स्वस्थान (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप) को छोड़कर अन्य स्थान में चली
जाती है, उसे पुनः स्वस्थान में स्थित करना प्रतिक्रमण है। पापों से पीछे हटना प्रतिक्रमण है। १२ अणुव्रतों में १ करण १ योग वाला व्रत चौथा, एक करण तीन योग वाला पाँचवाँ, छठा, सातवाँ एवं
दसवाँ, २ करण ३ योग वाले- १, २, ३, ६, ८, ९, १०, ११ एवं बिना करण योग का १२वाँ व्रत है। * ४९ भागों में से १ करण १ योग का भांगा तीसरा (करूँ नहीं कायसा) १ करण ३ योग का भांगा करूँ
नहीं मन से वचन से काया से, १९वाँ भांगा। दो करण तीन योग का भांगा ४०वा करूँ नहीं कराऊँ नहींमन, वचन, काया से। १२ अणुव्रतों में यावज्जीवन १ से ८ तक, जावनियम-नवमाँ एवं जाव अहोरत्तं-१०वाँ ११ वाँ अणुव्रत
* १२ अणुव्रतों में विरमण व्रत ६ हैं- १ से ५ और आठवाँ। परिमाण व्रत-छठा, सातवाँ। है ‘पज्जुवासामि' शब्द मात्र ९वें और ग्यारहवें व्रत में है। क्योंकि पूर्ण सावध योग का त्याग इन दोनों व्रतों
में है। र पेयाला' शब्द मात्र पहले अणुव्रत में और दर्शन सम्यक्त्व के पाठ में आता है और उसका अर्थ 'प्रधान'
* प्रतिक्रमण (आवश्यक सूत्र) के रचनाकार गणधर होते हैं और प्रतिक्रमण ३२ वाँ आगम आवश्यक सूत्र
* १२वें व्रत अतिथि संविभाग में साधु, साध्वी, प्रतिमाधारी श्रावक एवं भिक्षुदया वाले श्रावक आते हैं। * श्रावक अनर्थदण्ड का त्याग ४ प्रकार से करता है- १. आर्तध्यान का त्याग २. प्रमाद-आचरण का त्याग
३. हिंसक पापों के साधन देने का त्याग ४. पाप कर्म करने के उपदेश देने का त्याग। * श्रावक पौषध भी चार प्रकार के त्याग से करता है- १. आहार त्याग रूप २. कुशील के त्याग रूप ३.
शरीर शृंगार त्याग रूप ४. सावद्ययोग त्याग रूप । श्रावक के यावज्जीवन रात्रि-भोजन का त्याग ७वें व्रत की कालाश्रित मर्यादा है और १-२ दिन का त्याग दसवें व्रत में है।
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