SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 271 ||15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी निर्बल होकर भी बदला लेने का भाव रखता है एवं अभी बदला लेने के लिए प्रवृत्त नहीं हुआ है तो इसका तात्पर्य है कि उसमें क्षमाभाव नहीं है। वह तो वैर-विरोध की गाँठ बाँध चुका है। जब तक विरोध की गाँठे/ग्रन्थि बनी हुई हैं तब तक शान्ति एवं समरसता की श्वास लेना दुर्लभ है। एक संत के अनुसार प्रत्येक अपराधी अपने प्रति क्षमा की आशा करता है और दूसरों को दण्ड देने की व्यवस्था चाहता है। वह अपने प्रति तो दूसरों को अहिंसक, निर्वैर, उदार, क्षमाशील, त्यागी, सत्यवादी और विनम्रता आदि दिव्य गुणों से पूर्ण देखना चाहता है, किन्तु स्वयं उस प्रकार का सद्व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करता। अपने प्रति मधुरता युक्त सम्मान की आशा करना, पर दूसरों के प्रति अपमान एवं कटुतापूर्ण असद्व्यवहार करना दोषपूर्ण है। इससे व्यक्ति का अपने प्रति राग और दूसरों के प्रति द्वेष बढ़ता जाता है। क्षमाशीलता द्वेष को प्रेम में बदल सकती है। अपने प्रति होने वाले अन्याय को धैर्य के साथ सहर्ष सहन करते हुए अन्यायकर्ता को यदि क्षमा कर दिया जाय तो द्वेष प्रेम में बदल जाता है। अपने द्वारा होने वाले अन्याय से पीडित व्यक्ति से क्षमा माँग ली जाय और स्वयं अपने प्रति न्याय करके प्रायश्चित्त या दण्ड स्वीकार कर लिया जाय तो राग त्याग में बदल सकता है। __ आगमों में कषायजय के लिए कहा गया है कि- उपशम से क्रोध को, मार्दव से मान को, सरलता से माया को एवं संतोष से लोभ को जीता जा सकता है। किन्तु विचार किया जाए तो 'क्षमा' एक ऐसा अमोघ उपाय है, जिसे पूर्णतः अपना लिए जाने पर चारों कषायों से मुक्ति पायी जा सकती है। क्योंकि जहाँ क्षमा है वहाँ क्रोध पर विजय है। क्षमा मान-विजय का भी उपाय है, क्योंकि अहंकार के विगलन के बिना न क्षमा किया जा सकता है और न ही क्षमा माँगी जा सकती है। इसी प्रकार सरलता के बिना क्षमायाचना नहीं की जा सकती और सरलता मायाविजय का उपाय है। इस प्रकार प्रकारान्तर से जहाँ क्षमा करने एवं माँगने का भाव है वहाँ माया पर भी विजय होती ही है। इसी प्रकार क्षमा के द्वारा लोभ पर भी विजय शक्य है, क्योंकि जहाँ स्वार्थ की प्रबलता एवं लोभकषाय विद्यमान है वहाँ क्षमाभाव संभव नहीं है। इस प्रकार क्षमाभाव सभी प्रकार के कषायों पर नियन्त्रण करने एवं विजय दिलाने में सक्षम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy