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| जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006 अहिंसा, क्षमा एवं मैत्री का पाठ यदि कोई जीवन में अपना ले तो उसके विरोधी भी उसके अपने बन सकते हैं। कई बार छोटी-छोटी बात को लेकर भाई-भाई में तन जाती है। कभी अहंकार आड़े आता है, कभी लोभ आड़े आता है तो कभी क्रोधी एवं मायावी स्वभाव के कारण दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। फिर वे एक-दूसरे से बोलना भी पसन्द नहीं करते। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। समाज में अपनी किरकिरी होती हुई भी उन्हें नहीं दिखती, किन्तु एक-दूसरे का विनाश कैसे हो, यही दिखाई देता है। विरोध का भाव पति-पत्नी या अन्य स्थलों पर भी हो सकता है। विरोधी एक-दूसरे के सहयोग एवं गुणों को भूल जाते हैं, मात्र उनके दोष ही नजर आते हैं। चश्मा ऐसा चढ़ जाता है कि उनकी अच्छाई भी बुराई बनकर ही उभरती है। पति-पत्नी के कलह की नौबत तलाक तक पहुँच जाती है। यदि जीवन में क्षमा को स्थान दिया जाए तो तलाक की संख्या घट सकती है। विरोध एवं प्रतिकार का रूप कितना विद्रूप हो सकता है, इसकी सीमा नहीं बाँधी जा सकती। एक-दूसरे को नीचा दिखाने को जीवन की सार्थकता एवं सफलता नहीं माना जा सकता। यह तो मानव जीवन रूपी हीरे के साथ कंकर का व्यवहार है। इसे विवेक एवं बुद्धिमत्ता के स्तर समीचीन नहीं कहा जा सकता।
___ दो व्यक्तियों के तनाव, विरोध आदि की स्थिति को नियन्त्रित करने का ‘क्षमा' से बढकर कोई स्थायी उपाय नहीं हो सकता। मानव को मानव बने रहने के लिए भी 'क्षमा' को अपनाना होगा, अन्यथा उसमें दानव के लक्षणों का प्रवेश होने लगेगा।
दूसरे के द्वारा उत्पन्न प्रतिकूलता के क्षण में कुपित न होना या हनन का भाव न लाना ही क्षमा है। इस क्षमा में सहनशीलता एवं समता दोनों का समावेश हो जाता है। जो क्रोधादि का उपशम करता है वह क्षमाशील होता है और उसके द्वारा की गई आराधना ही आराधना की श्रेणी में आती है। कहा गया है-जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा। तात्पर्य यह है कि क्रोधादि का उपशम किए बिना साधना-आराधना में आगे नहीं बढा जा सकता।
उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान से गौतम गणधर द्वारा प्रश्न किया गया- क्षमा से क्या लाभ होता है? भगवान ने उत्तर में फरमाया-खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य सव्व-पाण-भूय-जीवसत्तेसु मित्तीभाव-मुप्पाएइ। मित्ती भाव-मुवगार यावि जीवे भावविन्सोहिं का निब्भए भवइ।
क्षमा से जीव प्रह्लादभाव को प्राप्त करता है। प्रह्लादभाव को प्राप्त कर सभी प्राणों, भूतों, जीवों एवं सत्त्वों के प्रति मैत्रीभाव को प्राप्त होता है। मैत्रीभाव को प्राप्त जीव भावविशुद्धि करके निर्भय बनता है। इस प्रकार क्षमा दो व्यक्तियों में प्रेम एवं आत्मीयता का संचार करती है।
क्षमा को वीरों का भूषण माना जाता है; क्योंकि वे प्रतिकार करने का सामर्थ्य रखते हुए भी क्षमा को अपनाते हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि निर्बल व्यक्ति क्षमाशील नहीं हो सकता। वह भी क्षमाशील हो सकता है, क्षमा तो निर्बलों का बल है, कहा भी है-क्षमा बलमशक्तानाम्। हाँ यह अवश्य है कि यदि कोई
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