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________________ जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 दसवाँ देशावगासिक व्रत के अन्तर्गत १४ नियम, ३ मनोरथ एवं अल्पकालीन संवर का समावेश होता है। जहाँ तक संभव हो प्रतिक्रमण विधि से याद होने पर अकेले करना ज्यादा लाभदायक है वैसे सामूहिक में भी किया जा सकता है। 274 ११वाँ व्रत पौषध करने का जघन्य काल चार प्रहर और उत्कृष्ट ८ प्रहर, १६ प्रहर आदि ८-८ बढ़ते हुए समझना चाहिए। प्रतिपूर्ण पौषध चौविहार युक्त ही आठ प्रहर का होता है । प्रतिपूर्ण पौषध में उपकरणों की प्रतिलेखना तीन बार करनी चाहिए। आठवें अणुव्रत के अन्तर्गत जो आठ आगार हैं वे पहले से आठवें व्रत के समझना चाहिये। किसी की धारणा से मात्र आठवें व्रत के हैं। प्रतिक्रमण के पूर्व में जो चउवीसत्थव का कायोत्सर्ग किया जाता है वह क्षेत्र विशुद्धीकरण है और दूसरे आवश्यक में जो प्रकट लोगस्स बोला जाता है वह तीर्थंकरों की नाम स्तुति रूप भाव विशुद्धि रूप समझना चाहिए। देवसि प्रतिक्रमण सूर्यास्त के बाद शुरू किया जाता है और राइय प्रतिक्रमण सूर्योदय के पूर्व पूरा कर लिया जाता है ऐसा क्यों? कारण यह है कि सूर्योदय के बाद साधक को स्वाध्याय, प्रतिलेखन, विहार, भूमिका आदि आवश्यक कार्य करने होते हैं । जिनकल्पी मुनि के लिये नियम है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक चले । इत्यादि कई कारणों से सूर्योदय के पूर्व राइय प्रतिक्रमण पूरा कर लिया जाता है। २४वें तीर्थंकर के समय लोगस्स को चउवीसत्थव या चतुर्विंशतिस्तव कहा जाता है तथा एक से बीस तीर्थंकरों के समय चउवीसत्थव को 'उत्कीर्तन' कहा जाता है । पूरे प्रतिक्रमण में हर आवश्यक के पहले तीन बार तिक्खुत्तो से वंदना करके आज्ञा लेनी चाहिये और बीच-बीच में श्रावक सूत्र, ९९ अतिचार प्रगट बोलने से पूर्व भी वंदना करते हैं । प्रतिक्रमण में चार लोगस्स की जगह १६ या १७ नवकार, ९९ अतिचार की जगह (नहीं आने पर ) ३२ नवकार का ध्यान इस प्रकार की परम्परा उचित नहीं है। जब तक ध्यान नहीं आवे या बड़े भाई 'नमो अरहंताणं' का उच्चारण प्रगट में (ध्यान आ जाने पर) नहीं करे तब तक नवकार का ध्यान कराना उचित है) अर्थात् काउसग्ग पूर्ण होने तक नवकार का ध्यान करते रहना चाहिए। दसवें देशावगासिक व्रत में चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवां और अपेक्षा से पहले अणुव्रत का समावेश हो जाता है। संवत्सरी में प्रतिपूर्ण पौषध के ऊपर यदि पोरसी की जाय तो दो अष्टप्रहर पौषध का लाभ होता है एवं अनाभोग से हुए पापों का प्रायश्चित्त उतर जाता है और चौमासी पक्खी में पौषध के ऊपर पोरसी करने से चार माह का अनाभोग से लगे हुए पापों का प्रायश्चित्त उतर जाता है एवं अष्टप्रहर पौषध का लाभ प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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