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________________ | 15,17 नवम्बर 2006|| || जिनवाणी 261 है। प्रतिकूलता में दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृत्ति समाप्त होती है। व्यक्ति स्वयं के प्रति सजग होने लगता है और रोग होने पर उपचार कराने से पूर्व अहिंसक-उपचारों को सर्वाधिक प्राथमिकता देता है। करणीयअकरणीय का विवेक जागृत होने से मन, वचन और काया की गलत प्रवृत्तियाँ छूटने लगती हैं, जिससे रोग होने की संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं और पूर्व की भूलों के परिणामस्वरूप यदि रोग हो भी जाता है तो व्यक्ति अधिक परेशान नहीं होता। उसका संकल्पबल दृढ़ हो जाता है। अनाथी मुनि ने अपने दृढ़ संकल्प से असाध्य रोगों से मुक्ति प्राप्त की। सनत्कुमार चक्रवर्ती मुनि अवस्था में अपने रोगों से विचलित नहीं हुए। गजसुकुमाल मुनि सिर पर जलते हुए अंगारों की वेदना समभाव से सहन कर सके। मिथ्यात्व के प्रतिक्रमण से शरीर एवं आत्मा का भेदज्ञान होने लगता है और सम्यग्दृष्टि स्थिर होती है। अव्रत का प्रतिक्रमण- व्रत से शरीर एवं इन्द्रियाँ संयमित होती हैं। स्वच्छन्दता पर नियन्त्रण होता है। संयम एवं मर्यादित जीवन ही स्वास्थ्य का मूलाधार होता है एवं स्वच्छन्दता रोगों का प्रमुख कारण। अतः जो व्रतों में अपना जीवन जीते हैं वे अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ होते हैं। व्रत मुख्यतया पाँच होते हैं। साधु उनका पूर्ण रूप से (३ करण एवं ३ योग से) पालन करते हैं, जबकि संसारी व्यक्ति उनको आंशिक रूप से पालन करने का संकल्प ले सकता है। अतः साधु के व्रतों को महाव्रत और श्रावकों के व्रतों को अणुव्रत कहा जाता है। पतंजलि के अष्टांग योग में इनको यम कहा गया है। हिंसा नहीं करना, असत्य नहीं बोलना, चोरी अथवा अनैतिकता का आचरण नहीं करना, कुशील सेवन नहीं करना और अपरिग्रह नहीं रखना, ये पाँच यम या व्रत हैं। इन व्रतों में जो-जो स्खलनाएँ (दोष लगे हों) हुई हों उनकी अनुप्रेक्षा कर भविष्य में वे दोष पुनः न लगें इस हेतु संकल्पबद्ध होना अव्रत का प्रतिक्रमण होता है। श्रावक के क्षेत्र का परिमाण करना, उपभोग-परिभोग की वस्तुओं की निश्चित सीमा रखना तथा अनावश्यक, अनुपयोगी प्रवृत्तियों से दूर रहना गुणव्रत कहलाते हैं। सामायिक और पौषध की आंशिक अथवा पूर्ण साधना करना निश्चित देश एवं काल तक गमनागमन आदि का त्याग करना तथा पंच महाव्रतधारी साधुओं को सुपात्र दान देना श्रावक के चार शिक्षा व्रत कहलाते हैं। इन बारह व्रतों के सम्यक् पालन में जो दोष लगे हैं, वे अव्रत प्रतिक्रमण से दूर हो जाते हैं। व्रतों का पालन ही संयम है। संयम ही जीवन है। संयमित जीवन ही स्वस्थ जीवन का मूलाधार होता है। हमें छह पर्याप्तियों एवं दस प्राणों का दुरुपयोग न करके संयम करना चाहिए। इन पर संयम करने से रोग उत्पन्न होने की संभावना कम हो जाती है। प्रमाद का प्रतिक्रमण- मैंने कितना समय अनावश्यक, अनुपयोगी, व्यर्थ कार्यो में बर्बाद किया। अपनी क्षमताओं का पूर्ण सदुपयोग नहीं किया। आत्मोत्थान के प्रति कितना सजग रहा। इस प्रकार प्रमाद के प्रतिक्रमण से आत्म-जागृति होने लगती है, आत्म-विकार दूर होने लगते हैं। जागृत मालिक के घर में रोग रूपी चोर के प्रवेश की संभावना नहीं रहती। रोग का कारण दूर होते ही स्वास्थ्य प्राप्त होने लगता है। कषाय का प्रतिक्रमण- क्रोध, मान, माया, लोभ के चिन्तन से इन आवेगों के दुष्प्रभावों का बोध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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