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260 जिनवाणी
|15,17 नवम्बर 2006|| है। कायोत्सर्ग सभी प्रकार के थकान से मुक्त होने की साधना है। व्यक्ति को अंदर से हल्कापन अनुभव होने लगता है। चैतन्य की अवस्था का बोध होने से कायोत्सर्ग आत्मा तक पहुँचने का द्वार है। अन्तिम छठे प्रत्याख्यान आवश्यक से व्यक्ति भविष्य में रोग के कारणों से बचने एवं स्वयं की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु प्रायश्चित्त के रूप में प्रत्याख्यान द्वारा आत्मा का अहित करने वाली इच्छाओं का निरोध करता है। इन्द्रियों के विषय भोगों से अनासक्त होने का संकल्प लेकर प्राणों का अपव्यय रोकता है। प्रत्याख्यान से आवेग, उद्वेग, उन्माद छूट जाते हैं और मन शांत होने लगता है। प्रतिक्रमण के विविध आसनों का स्वास्थ्य से संबंध
प्रतिक्रमण करते समय विविध पाठों का उच्चारण करते समय अलग-अलग आसन से बैठने अथवा खड़ा होने के पीछे भी स्वास्थ्य का रहस्य समाया हुआ है। प्रत्येक आवश्यक के प्रारंभ में आज्ञा लेने हेतु की जाने वाली वंदना से जोड़ों का दर्द कम होता है। माँसपेशियों में लचीलापन बना रहता है। शरीर में ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होता है एवं शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
ध्यान एवं आसन में मन के सारे आवेग शांत हो जाते हैं एवं प्राणों का अपव्यय रुक जाता है। सहनशक्ति बढ़ती है। तन, मन और वाणी शांत होते है।
बायाँ घुटना खड़ा रखकर जो पाठ बोले जाते हैं, उससे हमारा अहंकार शांत होता है जिससे सकारात्मक सोच विकसित होती है। गुणग्राहकता विकसित होती है।
दाहिना घुटना खड़ा करने से मनोबल दृढ़ होता है एवं लिये गये संकल्पों के पालन के प्रति उत्साह, जोश एवं सजगता आती है। खड़े रहने से प्रमाद में कमी एवं सजगता आती है। शरीर का संतुलन बना रहता
प्रतिक्रमण के प्रकार एवं उनका स्वास्थ्य से सम्बन्ध
अज्ञान एवं प्रमादवश किए गये वे सारे अकरणीय कार्य जो कषाय बढ़ाते हैं अथवा पाप की प्रवृत्तियाँ जो अशुभ कर्मों का बंध कर हमारी आत्मा को विकारी बनाती हैं, बंधन में डालती हैं एवं हमें रोगी बनाने में सहयोग करती हैं, उनका प्रतिक्रमण करना चाहिए। अध्यात्म में ऐसी प्रवृत्तियों को आस्रव अथवा पाप कहते हैं तथा स्वास्थ्य की भाषा में ये रोग के मुख्य कारण होते हैं। इन्हें मुख्यतया पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है। मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण- सत्य को सत्य मानकर स्वीकार करना, असत्य को असत्य मानकर छोड़ने का सम्यक् पुरुषार्थ करने का संकल्प करना ही मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण होता है। इन मिथ्या धारणाओं का प्रतिक्रमण नहीं हो तो ये रोग का कारण बन जाती हैं। मेरे दुःखों का कारण मैं स्वयं हूँ। मुझे कोई अन्य रोगी या दुःखी नहीं बना सकता। मेरा अज्ञान अथवा अधूरा ज्ञान एवं उसके अनुसार की गई अशुभ प्रवृत्तियाँ ही मेरे समस्त दुःखों एवं रोग के मुख्य कारण हैं। स्वदोषों को स्वीकार करने से व्यक्ति में सहनशीलता एवं धैर्य बढ़ता
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