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||15,17 नवम्बर 2006)
| जिनवाणी समाधान है, आहार-पानी-हवा और धूप के सम्यक् उपयोग एवं मन, वचन और काया द्वारा सम्यक् जीवन शैली जीने में समाधान है। समाधान बहुत हैं, किन्तु उस व्यक्ति के लिये कोई समाधान नहीं जिसमें अज्ञान भरा हो। प्रतिक्रमण उस अज्ञान को दूर करने में सहायक है। प्रतिक्रमण में छ: आवश्यकों का स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्त्व
__ अच्छे स्वास्थ्य के लिये रोग होने के कारणों को जानना एवं उनसे बचने का प्रयास आवश्यक होता है। जो पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं उनकी जीवन शैली को समझ उसके अनुरूप प्रेरणा लेना एवं उनसे सम्पर्क रख आवश्यक परामर्श लेना तथा भविष्य में रोग न हो उस हेतु शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना आवश्यक है।
प्रतिक्रमण के प्रथम सामायिक आवश्यक में ध्यान के माध्यम से ९९ अतिचारों का सूक्ष्मता से चिन्तन कर अपने दोषों की समीक्षा की जाती है अर्थात् रोग होने के कारणों का निदान किया जाता है। दूसरे चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक में जो सभी रोगों से पूर्ण रूप से मुक्त हो चुके हैं उन तीर्थंकरों का आलम्बन सामने रखकर स्तुति करने से स्वस्थ बनने का उपाय समझ में आता है। हमारा पुरुषार्थ मन को चन्द्रमा के समान निर्मल, हृदय को सूर्य के समान तेजस्वी और विचारों में सागर के समान गंभीरता लाने का होता है। तीसरे वन्दना आवश्यक में तीर्थंकरों के प्रतिनिधि के रूप में वर्तमान में हमारे सामने उपस्थित पंच महाव्रत धारी आत्म-चिकित्सक साधु-साध्वियों से विनयपूर्वक वंदन कर स्वस्थ रहने का मार्गदर्शन प्राप्त कर आत्मा को विकार मुक्त बनाने के लिये प्रयास किया जाता है। वे ही सच्चे चिकित्सक हैं जो आत्मशुद्धि का उपचार बताते हैं। वन्दना करने से जोड़ों का दर्द होने की संभावना कम रहती है। खमासमणो द्वारा नमस्कार मुद्रा में पंजों पर बैठने से शरीर का संतुलन होता है एवं स्नायु संस्थान स्वस्थ हो जाता है। चतुर्थ आवश्यक प्रतिक्रमण में मन, वचन और काया के योगों से जिन दोषों का सेवन स्वयं से किया जाता है, दूसरों से कराया जाता है एवं दूसरों द्वारा किये गये अकरणीय कार्यों का अनुमोदन किया जाता है उन सब दोषों से निवृत्त होने के लिए कृत दोषों की निन्दा, आलोचना करना इस प्रतिक्रमण आवश्यक का उद्देश्य है। इसके लिए ९९ अतिचारों एवं १८ पापों में जो-जो अतिक्रमण हुआ है उसकी आलोचना कर पश्चात्ताप किया जाता है। भविष्य में वे दोष पुनः न लगें उस हेतु पुनः संकल्प लिया जाता है। पंच परमेष्ठी के पाँचों पदों पर विराजमान पूज्य जनों के गुणों का स्मरण कर वैसा बनने की भावना अभिव्यक्त की जाती है। प्राणिमात्र के साथ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से किसी भी दुर्व्यवहार हेतु क्षमा माँगकर मैत्री भाव को विकसित किया जाता है, जिससे तनाव, चिन्ता, भय दूर होते हैं एवं व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। पाँचवें आवश्यक में लगे हुए दोषों के उपचार हेतु कायोत्सर्ग किया जाता है। व्रतों में अतिचार लगना संयम रूप शरीर के घाव तुल्य होता हैं। कायोत्सर्ग उन घावों के लिए मरहम का कार्य करता है। अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग को व्रण चिकित्सा बतलाया गया है। कायोत्सर्ग से आत्मा विशुद्ध हो शल्य रहित हो जाती है। द्रव्य दृष्टि से भी कायोत्सर्ग से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती
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