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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
ये आवेग तनाव, भय, अधीरता, असंतोष एवं अनावश्यक कामनाओं को पैदा करते हैं जो हमारी वृत्तियों, भावों को प्रभावित करते हैं । अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ अपना कार्य बराबर नहीं कर पातीं एवं व्यक्ति नकारात्मक सोच एवं मानसिक रोगों का शिकार बन जाता है। कषाय के प्रतिक्रमण से कषायों में मंदता आती है। कर्मों की निर्जरा होने से आत्मा विशुद्ध होने लगती है, मानसिक रोग नहीं होते ।
अशुभयोग का प्रतिक्रमण - मन, वचन और काया के योगों के चिन्तन से अकरणीय अशुभ प्रवृत्तियाँ कम होने लगती हैं तथा करणीय शुभ प्रवृत्तियाँ होने लगती हैं। परिणामस्वरूप करणीय कार्य में प्रवृत्ति होने के साथ-साथ अन्य को भी उसकी प्रेरणा देने तथा सम्यक् पुरुषार्थ करने वालों की अनुमोदना करने का सहज मानस बन जाता है। अकरणीय कार्य ही रोगों के मुख्य कारण होते हैं। अतः अशुभ से शुभ में प्रवृत्ति करना स्वास्थ्य को अच्छा बनाने में सहायक होता है। इस प्रकार पाँचों आस्रवों के प्रतिक्रमण द्वारा आत्म-विकारों दूर होने से व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान की सीमाएँ
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान एवं अधिकांश चिकित्सक बाह्य कारणों से उत्पन्न शरीर में रोग के ओं को नष्ट करने के लिए तो प्रयत्नशील रहते हैं, परन्तु मन में उत्पन्न आत्मा को कलुषित करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, राग-द्वेष, असत्य, अनैतिकता, घृणा, चिन्ता, भय, तनाव, असंयम आदि अशुभ प्रवृत्तियों के विकारों की गन्दगी से उत्पन्न रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिये न तो उनका ध्यान ही जाता है और न उनके पास इसको दूर करने का कोई सरल उपाय है। ये ही घुन या कीट हैं जो रोगोत्पत्ति का मुख्य कारण बन हमारे दिल, दिमाग और देह को दुर्बल बनाते हैं।
उपसंहार
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि प्रतिक्रमण से कषाय मंद होते हैं, आत्मा की विशुद्धि होती है, भावों में निर्मलता आती है, सकारात्मक सोच विकसित होती है। स्वविवेक एवं स्वदोष दृष्टि जागृत होने से आचरण में सजगता आती है, परिणामस्वरूप शरीर में स्थित सभी ऊर्जा चक्र सक्रिय रहने लगते हैं और अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ आवश्यकतानुसार संतुलित अनुपात में स्रावों का सृजन करने लगती हैं, जिससे शरीर, मन, मस्तिष्क और आत्मा ताल से ताल मिलाकर पूर्ण समन्वय से कार्य करने लगते हैं। मानसिक रोगों को पैदा करने वाले प्रमुख कारण क्रोध, भय, तनाव, अधीरता आदि दूर हो जाते हैं, सहनशीलता और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने लगती है। इसी कारण श्रावक एवं साधुओं के लिए प्रतिक्रमण को आवश्यक करणीय कहा है। इस प्रकार सही विधि द्वारा भावपूर्वक किया गया प्रतिक्रमण स्वास्थ्य का सरलतम, सहज, सस्ता, स्वावलंबी, अहिंसक दुष्प्रभावों से रहित, पूर्णतः वैज्ञानिक, प्रभावशाली, निर्दोष उपचार है जिससे न केवल शरीर अपितु मन एवं आत्मा भी स्वस्थ होता हैं।
- चोरडिया भवन, जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर
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