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256 जिनवाणी
15,17 नवम्बर 2006|| शंका-यह प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है? समाधान- जिसने अपराध किया है तथा जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सब प्रकार से बलवान् है, सब प्रकार से शूर है और अभिमानी है, ऐसे साधु को दिया जाता है।" (८) (सम्पूर्ण संयम काल विच्छेद) प्रायश्चित्त- समस्त पर्याय का विच्छेद कर पुनः दीक्षा देना मूल नाम का प्रायश्चित्त है। शंका- यह मूल प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है? समाधान- अपरिमित अपराध करने वाला जो साधु पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्ग में स्थित है, उसे दिया जाता है।" (९) परिहार (अनवस्थाप्य और पाराधिक) प्रायश्चित्त- राजा के विरुद्ध आचरण करने पर जो प्रायश्चित्त दिये जाते हैं, वह परिहार प्रायश्चित्त कहलाता है। परिहार दो प्रकार का है- अनवस्थाप्य और पाराश्चिक। उनमें से अनवस्थाप्य परिहार का जघन्य काल ६ महीना और उत्कृष्ट काल १२ वर्ष है। वह कायभूमि से दूर रहकर विहार करता है, प्रतिवन्दना से रहित होता है,गुरु के सिवाय अन्य सब साधुओं के साथ मौन का नियम रखता है तथा उपवास, आचाम्ल, दिन के पूर्वार्द्ध में एकासन और निर्विकृति आदि तपों द्वारा शरीर के रस, रुधिर और माँस को शोषित करता है।
पाराञ्चिक तप भी इसी प्रकार होता है। किन्तु इसे साधर्मी पुरुषों से रहित क्षेत्र में आचरण करना चाहिये। इसमें उत्कृष्ट रूप से छह मास के उपवास का भी उपदेश दिया गया है। ये दोनों ही प्रकार के प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर और दस पूर्वो को धारण करने वाले आचार्य करते हैं। (१०) श्रद्धान प्रायश्चित्त- मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित हुए जीव के महाव्रतों को स्वीकार कर आप्त, आगम
और पदार्थो का श्रद्धान करने पर श्रद्धान नाम का प्रायश्चित्त होता है।" संदर्भ
निम्नांकित सभी संदर्भ षट्खण्डागम, पुस्तक १३, खण्ड ५, कर्मानुयोगद्वार, सूत्र २६ की धवला टीका, पृष्ठ ५९ से ६३ तक से उद्धृत हैं१. कयावराहेण ससंवेयणिव्वेएण सगावराहणिरायणटें जमणुगुणं कीरदि तप्पायच्छित्तं णाम तवोकम्मं । २. तं च पायच्छित्तमालोयणा-प्पडिक्कमण-उभय-विवेग -विउसग्ग-तव-च्छेद-मूल-परिहार-सद्दहणभेदेण
दसविह। ३. गुरूणमपरिस्सवाणं सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरुव्व थिराणे सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्तं ।
गुरूणमालोयणाए विणा ससंवेग-णिव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं।
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