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|15.17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
251 कथंचित् स्वलक्ष्य मार्ग से स्खलित होने पर प्रमादी होकर नीचे पड़ा नहीं रहता है। वह पुनः नवचेतना, नवस्फूर्ति, नवशक्ति लेकर खड़ा हो जाता है। वह अपना पश्चात्ताप स्वसाक्षी, परसाक्षी पूर्वक करता हुआ दोष का परिमार्जन करता है। त्रुटि होने पर त्रुटि को स्वीकार करना, पुनः त्रुटि नहीं होवे तदनुकूल सतत पुरुषार्थ करना प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त है। इससे साधक की सरलता व आत्मविशुद्धि की भावना स्पष्ट व्यंजित होती है एवं पुष्ट होती है। आत्मा की दुर्बलता नष्ट होती है एवं आत्मा दृढ़ हो जाती है। मनुष्य में उन्नति करने की जितनी प्रणालियाँ हैं उनमें सर्वप्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है स्व-दोष स्वीकार करना, परिमार्जन करना एवं उस दोष को आगे नहीं होने देना। प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि से उसकी प्रामाणिकता अधिक से अधिक निखर उठती है। आत्मविश्वास के साथ-साथ यह लोक विश्वास का भी सम्पादन करता है।
वर्तमान मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी अनेक मानसिक एवं शारीरिक रोगों की चिकित्सा प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, स्वदोष-स्वीकार करना आदि विधि से करते हैं। अनेक मानसिक एवं शारीरिक रोग तनाव से उत्पन्न होते हैं। तनाव का मूल कारण असत् आचरण, अनैतिक आचार-विचार, दूसरों के प्रति ईर्ष्या, घृणा, द्वेष के साथ प्रगट एवं अप्रगट रूप में दोषयुक्त कार्य करना है। उपर्युक्त कारण से मन में, अन्तश्चेतना में, अवचेतन मन में एक प्रकार का मानसिक असंतुलन व विक्षोभ उत्पन्न होकर कुण्ठित मानसिकता की एवं विकृत भावनाओं की ग्रंथि पड़ जाती है। ये ग्रंथियाँ ही शारीरिक एवं मानसिक रोगों का कारण बन जाती हैं। जब तक आत्म-निरीक्षण, स्वदोष स्वीकार, आत्म-विश्लेषण, पश्चात्ताप, निंदा, गर्दा नहीं की जाती है तब तक मानसिक तनाव भावनात्मक ग्रंथियाँ, मानसिक एवं शारीरिक रोग विभिन्न भौतिक एवं शारीरिक चिकित्सा से दूर नहीं हो सकते हैं। निन्दा, गर्हा, पश्चात्ताप आदि के बिना इनका पूरा इलाज नहीं हो सकता। इसका विशेष वर्णन मेरे द्वारा लिखित 'धर्म एवं स्वास्थ्य विज्ञान' के मनोवैज्ञानिक चिकित्साप्रकरण में किया गया है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि का आचरण स्वकृत दोष निवारण के साथ-साथ दूसरों के विश्वास भाजन बनने एवं शारीरिक-मानसिक रोग-निवारण के लिए अमोघ उपाय है।
___ यदि किसी पुरुष के शरीर में काँटा लग गया और वह उससे बहुत कष्ट पा रहा है तो जब तक वह काँटा उसके शरीर से नहीं निकलेगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता है। उस काँटे को निकालकर जैसे वह पुरुष सुखी होता है, उसी तरह आत्म-हितैषी व्यक्ति वीतरागी साधुओं की शरण लेकर अपनी आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाले पापकर्म रूपी काँटे को आलोचना द्वारा निकाल फेंकते हैं और वे फिर कभी नाश न होने वाली आत्मिक लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। भाव परिष्कार : सही उपचार (उदाहरण १)- एक स्त्री अपने पति के कटु-व्यवहार से अत्यन्त दुःखी थी। इस दुःख के कारण उस स्त्री की मृत्यु हो गयी। इससे पति को बहुत बड़ा मानसिक (आघात) धक्का लगा, जिससे वह क्षयरोग से ग्रस्त हो गया। मनोवैज्ञानिक परीक्षण हुआ। परीक्षण से पता चला कि इस रोग का कारण शारीरिक न होकर मानसिक है और मानसिक कारण है आत्मग्लानि। डाक्टरों ने योग्य मानसिक
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