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________________ 2507 जिनवाणी 15.17 नवम्बर 2006 शुद्धिकारक होने से प्रायश्चित्त ‘तप' कहलाता है। प्रायश्चित्त के १० भेद यह प्रायश्चित्त आभ्यन्तर तप का एक भेद है। प्रायश्चित्त १. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. उभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल ९. परिहार १०. श्रद्धान के भेद से दस प्रकार का है। इस विषय में प्रसिद्ध गाथा है आलोयण पडिकमणे उभय-विवेगे तहा विउसग्गो। तवछेदो मूलं पि य परिहारो चेव सद्दहणा ।।१।। इन दस भेदों का संक्षेप में वर्णन करने के साथ प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का मनोवैज्ञानिक पक्ष प्रस्तुत किया गया है (१)आलोचना (स्वदोष प्रकाशन) प्रायश्चित्त- अपरिस्राव अर्थात् आस्रव से रहित, श्रुत के रहस्य को जानने वाले, वीतराग और रत्नत्रय में मेरु के समान स्थिर ऐसे गुरुओं के सामने अपने दोषों का निवेदन करना आलोचना नामक प्रायश्चित्त है।' (२) प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त- गुरुओं के सामने आलोचना किये बिना संवेग और निर्वेद से युक्त साधु का 'फिर से कभी ऐसा न करूँगा' यह कहकर अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त है।' शंका- यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त कहाँ पर होता है? समाधान- जब अपराध छोटा सा हो और गुरु समीप न हो, तब यह प्रायश्चित्त होता है। विश्व एवं काल अनादि है। इसलिए जीव भी अनादिकाल से है। जीव के अनादिकाल से होने से कर्मबंध भी अनादिकालीन है। जीव में भी अनन्त शक्ति है एवं जीव को बाँधने वाले कर्म में भी अनंत शक्ति है, क्योंकि यदि कर्म में अनंत शक्ति नहीं होती है तो अनंत शक्ति संपन्न जीव को कर्म बाँध नहीं सकता है। अनादि काल से कर्म में बँधा हुआ, कर्म से रचा हुआ एवं कर्म से संस्कारित जीव पर कर्म का अनुशासन अनादिकाल से चला आ रहा है। उस कर्म की प्रेरणा शक्ति इतनी तीव्र है कि वह कभी-कभी भेदविज्ञानसम्पन्न आत्मसाधक महासत्त्व वाले अंतरात्मा मुनि को भी पदस्खलित, पथचलित कर देती है। महान् तत्त्ववेत्ता दार्शनिक संत पूज्यपाद स्वामी ने इस अभिप्राय को लेकर कहा है जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि। पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रांतिं भूयोऽपि गच्छति ।। -समाधितंत्र, ४५ अंतरात्मा आत्मतत्त्व को जानती हुई भी तथा शरीर से भिन्न आत्मा की भावना करती हुई भी, मानती हुई भी पुराने बहिरात्मावस्था के मिथ्यासंस्कार से शरीर को आत्मा समझ लेने के भ्रम को कर बैठती है। आत्मसाधक अनिच्छापूर्वक कर्म की तीव्र शक्ति से घात-प्रतिघात को प्राप्त करके कदाचित्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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