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________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 249 प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का मनोवैज्ञानिक पक्ष आचार्य श्री कनकनंदी जी अपराध निराकरण हेतु किया गया अनुष्ठान प्रायश्चित्त है। दिगम्बराचार्य श्री कनकनन्दी जी महाराज ने प्रायश्चित्त के धार्मिक पहलू के साथ मनोवैज्ञानिक पहलू पर भी प्रकाश डाला है । लेख में प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त के द्वारा मानसिक और शारीरिक रोगों को दूर करने के उपाय उदाहरण सहित दिये गये हैं। प्रायश्चित्त के दस भेदों के माध्यम से की गई प्रतिक्रमण की विस्तृत मनोवैज्ञानिक व्याख्या पाठकों के लिए ग्रहणीय है । -सम्पादक षट्खण्डागम में प्रतिपादित है कि अपराध करने वाला साधु संवेग और निर्वेद से युक्त होकर अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है, वह प्रायश्चित्त नाम का तप कर्म है । ' विषय एक श्लोक इस प्रकार कहा गया है. इस में - प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥ धवला टीका 'प्रायः' पद लोकवाची है अर्थात् व्यक्ति का बोधक है। और 'चित्त' से अभिप्राय उसका मन है। इसलिए उस चित्त की शुद्धि को करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए। जब एक मनुष्य से किसी प्रकार का दोष हो जाता है तो उस दोष के कारण उसकी अन्तरात्मा मलिन, दूषित और अपवित्र हो जाती है । अन्तरात्मा के दूषित होने के साथ-साथ अन्य लोग भी उसके प्रति मलिन एवं अपवित्र मनोभाव को धारण करते हैं। इस प्रकार दोषी अन्तर्लोक (आत्मा) और बहिर्लोक (बाह्य जनसाधारण) में दूषित माना जाता है। जब तक वह दोषी अपना दोष परिमार्जन नहीं करता है तब तक वह दोनों तरफ से मलिन होकर पतित हो जाता है। इससे उसके धैर्य, साहस, आत्मगौरव आदि का नाश होने से आध्यात्मिक शक्ति क्षीण हो जाती है। उपर्युक्त दोष से अपना उद्धार करने के लिए वह दोषी यथायोग्य स्वसाक्षी, गुरुसाक्षी, परसाक्ष्य पूर्वक दोषानुकूल प्रायश्चित्त लेकर आत्मविशुद्धि करता है। आत्मविशुद्धि के अनन्तर अंतरात्मा निर्मल या पवित्र हो जाने से उसका धैर्य, साहस, वीर्य, आत्मगौरव वृद्धिंगत होता है जिससे उसकी आध्यात्मिक शक्ति स्वतः वृद्धि को प्राप्त होती है। दोष स्वीकार करके, दोषपरिमार्जन करने से साधारण लोग भी उसकी प्रामाणिकता से प्रेरित होकर पहले जो उसके प्रति दोषजनित दूषित भाव मन में था उसको निकाल फेंकते हैं। इस प्रकार प्रायश्चित्त से स्वशुद्धि के साथ-साथ लोगों की चित्तशुद्धि भी हो जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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