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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
चिकित्सालय में उसको भेज दिया। मानसिक चिकित्सा से कुछ ही दिनों में वह क्षयरोग से मुक्त हो गया। 'प्रायश्चित्त' एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा विधि ( उदाहरण २) - एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक चिकित्सक 'डॉ. कलेरे संलीव' जब सिरदर्द, अनिद्रा, हाइपर एसिडिटी आदि रोग से ग्रस्त व्याधि के कारण का शारीरिक दृष्टिकोण से शोध कर न सके तब उन्होंने आत्मीय एवं प्रेमभाव से रोगी को कहा- “बेटे, सच बताओ, तुम्हारे मन में क्या दबा हुआ है ? तुम्हारें अन्तरंग की बात बताने पर ही संभव है कि मैं रोग का सही-सही निदान एवं उपचार कर सकूँ।"
तब रोगी बोला- “मेरा एक भाई विदेश में रहता है उसे धोखा देने का पाप मेरे मन में आ गया। फलतः मैं पैतृक सम्पत्ति में जो मेरे भाई का हिस्सा है, उसे हड़पने के षड्यंत्र में (जालसाजी) संलग्न हूँ।” डॉ. संलीव ने रोग का वैज्ञानिक कारण खोज निकाला। डॉक्टर ने रोगी को नीरोग हो जाने का आश्वासन दिया। उससे भाई के नाम एक पत्र लिखवाया। उस पत्र में रोगी ने अपने कृत कारनामों को स्पष्ट स्वीकार किया और उस त्रुटि के लिए भाई से क्षमा माँगी। डॉक्टर ने प्रायश्चित्त के स्वरूप उससे हड़पने की राशि का चेक लिखवाया और लेटर बॉक्स तक रोगी के साथ जाकर पत्र पेटी में डलवा दिया। पत्र डालते ही रोगी फूटफूटकर रोने लगा। उसने कहा कि धन्यवाद डॉ. साहब! अब मेरी सभी बीमारियाँ दूर हो गयी हैं। तब से वह रोगी सम्पूर्ण रूप से नीरोगी हो गया ।
धार्मिक दृष्टिकोण से इसी को प्रायश्चित्त कहते हैं। प्रायश्चित्त विधि प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय में है, विशेष करके जैन धर्म में । प्रातःकाल एवं संध्या के समय प्रायश्चित्त लेने का विधान है। रात्रि में किये गये ज्ञात, अज्ञात या प्रमादवशतः निम्नश्रेणीय कीटपतंग से लेकर उच्च स्तरीय मानव तक किसी के भी प्रति किसी भी प्रकार मन, वचन, काया से अपराध होने पर परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से स्व-साक्षी अथवा परसाक्षी पूर्वक क्षमायाचना पूर्वक प्रायश्चित्त प्रातःकाल लेते हैं। इसी प्रकार दैवसिक अपराध के लिए संध्या के समय प्रायश्चित्त लेते हैं। जैनों के प्रतिक्रमण में आद्य पाठ निम्न प्रकार है
जीवे प्रमादजनिताः प्रचुरा प्रदोषाः ।
यस्मात् प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयान्ति । प्रतिक्रमण पाठ
प्रमाद (असावधानी) वशतः जीवों के प्रति प्रचुर रूप से जो दोष होते हैं, वे दोष प्रतिक्रमण के माध्यम से नष्ट हो जाते हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ है- कृत दोष को स्वीकार करना । अन्यायपूर्ण अनुचित, अनैतिक, अधार्मिक कार्य करते ही किसी व्यक्ति की अन्तश्चेतना जान लेती है कि कुछ विपरीत व अप्राकृतिक कार्य हुआ है। इससे मानसिक शांति व संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे शरीर का नाडीतंत्र व ग्रंथितंत्र प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । फलतः मानसिक अस्वस्थता हो जाती है। उस मानसिक अस्वस्थता के कारण शरीर भी अस्वस्थ हो जाता है और जब तक भूल का सुधार नहीं हो जाता तब तक यह मानसिक और शारीरिक अस्वस्थता बनी रहती है। भूल का सुधार होते ही रोगी स्वस्थ हो जाता है। पहले धर्मात्मा लोग
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