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________________ || जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 राजा की जो राज्यादि की झूठी मान्यता थी, वह दूर हो गई। राजा ने सही समझ प्राप्त कर मिथ्यात्व या झूठी मान्यता का प्रतिक्रमण किया। अव्रत का प्रतिक्रमण ___ परदेशी राजा ने अव्रत का प्रतिक्रमण किया था। राजा परदेशी शरीर और आत्मा को अलग-अलग नहीं मानता था। उसने अनेक जीवों को कोठी में बंद करके रखा था। वे प्राणरहित बन गए। वह नहीं जान सका कि उनकी आत्मा कहाँ से निकली और कैसे? एक दिन परदेसी राजा के नगरवासी चित्त सारथी ने सोचा कि राजा को प्रतिबोध दिलाना जरूरी है। राजा इतना पाप कर रहा है, यह तभी बंद होगा। सारथी चित्त ने केशी मुनि से निवेदन किया। मुनि ने राजा को सेवा में लाने की बात कही। साथी राजा को घोडों की परीक्षा के बहाने बगीचे में ले आया। मुनि पहले से ही पधारे हुए थे। राजा की नजर मुनि पर पड़ी- पूछा यह कौन? सारथी- ये शरीर और आत्मा को अलग-अलग मानते हैं। राजा तुरन्त उनकी सेवा में पहुंचा। राजा - क्या आप जीव और शरीर को अलग-अलग मानते हैं ? मुनि - हाँ, मृत्यु के बाद जीव दूसरी गति में जाकर पुण्य-पाप का फल भोगता है। राजा - मेरे दादा बहुत पापी थे। आपके कथनानुसार वे नरक में गए होंगे। वे यहाँ आकर मुझसे कहते - बेटा, पाप मत कर नहीं तो मेरी तरह नरक के दुःख भोगेगा। तो मैं शरीर और जीव को अलग मान लेता। मुनि - तुम अपनी सूर्यकान्ता रानी के साथ किसी पापी को व्यभिचार करते देखो तो क्या करोगे? राजा - मैं उसकी जान ले लूँगा। मुनि - यदि वह थोड़ी देर के लिए घरवालों को कहने हेतु जाना चाहे तो? राजा - ऐसा कौन मूर्ख होगा? मुनि- इसी प्रकार अनेक पाप करते-करते तुम्हारे दादा को नरक से छुट्टी कैसे मिलेगी? राजा- मैंने एक अपराधी को कोठी में बंद किया। कोठी पूरी बन्द थी। थोड़ी देर बाद कोठी में देखा। वह मर चुका था। किन्तु मैंने जीव को निकलते नहीं देखा। मुनि- राजन्! गुफा का द्वार बन्द कर कोई अन्दर ढोल बजावे तो आवाज बाहर आयेगी। राजा - आयेगी। इसी प्रकार आत्मा शरीर से निकल जाता है, परन्तु दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार लोहे के गोले में आग प्रवेश कर जाती है, परन्तु पता नहीं चलता। श्रावस्ती का राजा परदेसी समझ गया। वह जैन धर्म का अनुयायी बन गया। बेले-बेले तप करते हुए धर्मसाधना करने लगा। दानशाला खोल दी। रानी सूर्यकान्ता ने उसे भोजन में विष दे दिया। राजा ने समता रखी, मृत्यु पाकर देव बना और महाविदेह में जन्म लेकर वह मोक्ष जायेगा। इस प्रकार राजा परदेसी ने अव्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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