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15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी,
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मिथ्यात्वादि का प्रतिक्रमण : कतिपय प्रेरक प्रसंग
श्रीमती हुकम कुँवरी कर्णावट
मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण राजा श्रेणिक ने, अव्रत का प्रतिक्रमण परदेशी राजा ने, प्रमाद का प्रतिक्रमण शैलक राजर्षि ने, कषाय का प्रतिक्रमण चंडकौशिक सर्प ने और अशुभयोग का प्रतिक्रमण प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने किया । इन पाँच घटनाओं के प्रसंग से लेख में प्रत्येक प्रतिक्रमण की महनीयता का प्रतिपादन हुआ है । -सम्पादक
प्रतिक्रमण अनेक आत्माओं ने किया, कर रही हैं और कई आत्माएँ करती रहेंगी, परन्तु भावात्मक रूप में भी पाँचों प्रतिक्रमण की साधना आवश्यक है । पाँचों प्रतिक्रमण हैं- मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, व्रत प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण और अशुभ योग का प्रतिक्रमण । यहाँ इनमें से प्रत्येक प्रतिक्रमण का एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है ।
मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण
मगध सम्राट् श्रेणिक ने मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण किया था। एक दिन महाराजा श्रेणिक भ्रमण करते हुए मंडिकुक्ष उद्यान में आ निकले। वहाँ एक मुनि को देखा। उनकी शांत सौम्य मुखमुद्रा देखकर बहुत प्रभावित हुए। इस तरुण अवस्था के मुनि से पूछ लिया- “आप इस तरुणावस्था में मुनि कैसे बने ?"
मुनि - राजन् ! मैं अनाथ था।
राजा - मैं आपका नाथ बनता हूँ। मेरे महलों में पधारें और सुखपूर्वक रहें ।
मुनि राजन्! आप स्वयं अनाथ हैं।
मगध सम्राट् ने अपने राज्य, धन से भरे भंडार आदि का परिचय दिया ।
मुनि बोले- "राजन् ! मेरे भी धन माल का भण्डार था । भरापूरा परिवार था, पत्नी थी। एक बार भयंकर नेत्रवेदना हुई। मेरे पिता ने सभी प्रकार के इलाज किए। धन पानी की तरह बहाया। परन्तु मेरा रोग ठीक नहीं हुआ। एक दिन मैंने मन में विचार किया - यदि मैं अच्छा हो जाऊँ तो प्रातः होते ही मुनि बनकर दीक्षा ले लूँगा, मेरा रोग ठीक हो गया। प्रातः होते ही मैंने अपने संकल्प के अनुसार संयम ले लिया । हे राजन् ! यह मेरी अनाथता थी । "
राजा श्रेणिक समझ गया कि वास्तव में धन परिवार कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता। धर्म ही हमारा सच्चा रक्षक है। ये बाहरी पुद्गल, परिवार, महल, बंगले नहीं धर्म ही हमारा सच्चा साथी है। इस प्रकार
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