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जिनवाणी
15,17 नवम्बर 2006 माँगने की इच्छा करता है। तृष्णा बढ़ती गई, लेकिन तृप्ति नहीं। जैसे ही अन्तर्मन में झांका की दो मासा से राज्य तक पहुँच गया फिर भी संतोष नहीं पाया। लाभ के साथ लोभ बढ़ रहा है
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढइ।
दो मासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।। यह जानकार कपिल ब्राह्मण ज्ञानचक्षु से लोभ कषाय को हितकारी न जानकर, आत्मग्लानि पूर्वक पश्चात्ताप कर अपने भावों को परिष्कृत कर आत्म स्नान कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं।
कषाय के दुष्परिणाम से जीवात्मा की संसारवृद्धि होती है और अपने स्वभाव से हट जाती है। कषाय के कारण भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही तरह से संत्रस्त आत्मा दिव्य भावों में नहीं पहुँच पाती। स्वस्थान में लौटाने का एक मार्ग प्रतिक्रमण है। कषाय प्रतिक्रमण द्वारा साधक स्वयं अतीत काल में लगे दोषों का शोधन कर वर्तमान में पश्चात्ताप कर, भविष्य में नये पाप कर्म न करने का संकल्प करता है- “छु, पिछला पाप से, नया न बाँधू कोय।' आत्मशुद्धि में यदि उत्कृष्ट रसायन आ जाय तो तीर्थंकर नाम कर्म का बंध हो जाता है। o आत्म-साधक अपने जीवन का कोना-कोना प्रतिक्रमण के प्रकाश से प्रकाशित करता है। प्रतिक्रमण कर लेने से आत्मा में अप्रमत्तभाव जाग्रत होकर अपूर्व आत्मशुद्धि का पथ प्रशस्त होता है और अज्ञान, अविवेक का अन्त होता है। संदर्भ१. आचारांगनियुक्ति, १८९ २. स्थानांगसूत्र ५/३ ३. उत्तराध्ययन सूत्र २३/५३ ४. दशवैकालिक सूत्र ८/४० ५. दशवकालिक सूत्र ८/३८ ६. आत्मानुशासन २१६ ७. ज्ञाताधर्मकथा, १/५ ८. ज्ञानार्णव, सर्ग १९, श्लोक ५८,५९ ९. उत्तराध्ययन सूत्र ९/४८ १०. उत्तराध्ययन सूत्र ८/१८
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