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________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी राग के फल हैं। राग का प्रथम फल- माया, छल, कपट, झूठ, चोरी, धोखा, दगा, ठगाई आदि वृत्तियाँ हैं। इस प्रवृत्ति वाला व्यक्ति सशंक बना रहता है, क्योंकि दुर्नीति प्रकट हो जाने का भय रहता है। सशंकित भयाक्रान्त मानव कदापि निराकुल नहीं रहता। ज्ञानार्णव ग्रंथ में माया कषाय को अविद्या की जन्मभूमि, अपयश का घर, पाप रूपी कीचड़ का गर्त, मुक्ति द्वार की अर्गला, नरक रूपी घर का द्वार और शील रूपी शाल वृक्ष के वन को जलाने के लिए अग्नि कहा है। माया को मत्सर भाव कहा है। जैसे मच्छर मधुर राग कानों में सुनाकर डंक मारता है। अभिमन्यु को चक्रव्यूह में माया से ही मौत के घाट उतारा गया था। मायावी के भावों में विरूपता रहती है, लेकिन आत्मार्थी माया-कषाय का त्याग कर 'जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अंतो' एकरूपता को स्वीकार करता है। 'सोही उज्जूयभूयस्स' शुद्धि ऋजुभूत (सरल) की होती है। स्पष्ट है आत्म-शुद्धि होगी तभी आत्मसिद्धि होगी। शुद्धि के अभाव में सिद्धि प्राप्त नहीं होती। तीर्थंकरों का जन्म पुरुष के रूप में होता है, किन्तु मल्लीकुमारी (मल्लीनाथ) का जन्म महिला के रूप में होना अद्भुत एवं आश्चर्यजनक घटना है। इसका कारण था मल्लीनाथ भगवान् ने पूर्वभव में तप-साधना में अपने साथियों के साथ माया कषाय का आचरण किया और उसकी बाद में आलोचना (प्रतिक्रमण) नहीं की, उसके फल रूप में तीर्थंकर नाम का उपार्जन तो हुआ, पर स्त्रीलिङ्ग में उसका प्रतिफलन हुआ। ४. लोभ प्रतिक्रमण से परम संतोष- 'लोभमूलानि पापानि', 'लोभ पापों का मूल', 'लोभ पाप का बाप' है। ऐसे सूत्रों से स्पष्ट है लोभ-कषाय सबसे मजबूत कषाय है। क्रोध, मान, माया कषाय के पूर्णतः चले जाने पर भी आत्मा में पूर्ण रूप से पवित्रता प्रकट नहीं होती है। साधक चौदह गुणस्थानों में से ग्यारहवें गुणस्थान में आकर लोभ-कषाय (संज्वलन) के पुनः उदय होने पर मिथ्यात्व दशा-प्रथम गुणस्थान तक भी आ सकती है। __लोभ-कषाय की उत्पत्ति असंयम, तृष्णा, अभिलाषा, आसक्ति आदि है। बाहर से जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु तृष्णा रूपी अग्नि को समस्त समुद्र के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता है। ये इच्छाएँ आकाश के समान अनंत है, असीम हैं। तृष्णा रूपी बेल के कारण जीवात्मा दुःख प्राप्त करती है। यदि यह निरासक्ति, संयम, संतोष आदि को अपने स्व-स्वभाव में लेकर आ जाये तो क्षण मात्र में परम सुख को प्राप्त करती है। कपिल ब्राह्मण दो मासा स्वर्ण प्राप्त करने के लिए अर्द्धरात्रि में घर से निकल गया। नगर-रक्षकों ने मध्यरात्रि में घूमते देख पकड़ लिया। प्रातःकाल राजा ने अर्द्धरात्रि में राजपथ पर अकेले घूमने का वास्तविक कारण जानना चाहा तो कपिल ने निर्भयता, सरलता से स्पष्ट बात कह दी। जिससे प्रसेनजित राजा ने प्रसन्न होकर कहा- निःसंकोच जितना धन माँगों, मैं तुम्हें दूँगा। कपिल राजोद्यान में बैठकर चिन्तन करने लगा- दो मासा सोने से क्या होगा। सौ स्वर्ण मुद्राएँ, लाख, करोड़ मुद्राएँ माँग लेता हूँ। इससे भी संतुष्ट न होकर राज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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