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जिनवाणी ||
||15,17 नवम्बर 2006 प्रतिक्रमण करके क्षमा-भाव धारण करके आठवें देवलोक सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न होता है। २. मान कषाय के शमन से मृदुता गुण- मान-कषाय से आत्म-स्वभाव में विद्यमान ऋजुता का अभाव होता है। क्रोध एवं मान दोनों द्वेष रूप हैं, लेकिन दोनों की प्रकृति में भिन्नता है। प्रतिकूलता में क्रोध का एवं अनुकूलता में मान का आगमन होता है। असफलता क्रोध और सफलता मान की जननी है। इसी कारण असफल व्यक्ति क्रोधी एवं सफल व्यक्ति मानी होता है। ये अवस्थाएँ आत्मा को विकारमय बना देती हैं। अभिमान से विनय, सेवा, सहकारिता, मृदुता इत्यादि गुण नष्ट होते हैं। मान की उत्पत्ति के कारण तथा इससे होने वाली हानि पर चिंतन-मनन से आत्मा का पर-पदार्थो से ममत्व हटता है और साम्य भाव प्रकट होता है। 'विणय मूले धम्मे पण्णत्ते” अर्थात् धर्म का मूल विनय है, इसी कारण आभ्यन्तर तप में प्रथम विनय को रखा है। मान कषाय का प्रतिक्रमण कर मृदुता गुण अपनाकर बाहुबली ने मुक्ति प्राप्त की।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र तथा दो पुत्रियाँ थीं। ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी बनाया, शेष निन्यानवे पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्य देकर स्वयं आत्म-कल्याणार्थ साधना-पथ पर बढ़ गये। भरत ने पूर्व भव में चक्रवर्ती नामकर्म का उपार्जन किया था। फलस्वरूप सभी भ्राताओं को अपने अधीनस्थ करने का संदेश भिजवाया। उनमें अटठानवें भाइयों ने ऋषभदेव के चरणों में संयम ग्रहण कर लिया। बाहुबली ने भरत की अधीनता स्वीकार नहीं की और ज्येष्ठ भ्राता भरत के साथ दृष्टि-युद्ध, वाक्-युद्ध, बाहु- युद्ध में विजयी हुए। मुष्टि-युद्ध में जैसे ही बाहुबली ने भरत चक्रवर्ती पर प्रहार करने के लिए अपनी प्रबल मुष्टि उठाई लेकिन देव (शक्रेन्द्र)के मना करने पर उठी हुई ऊर्ध्व मुष्टि से स्वयं का केश-लुंचन कर लिया। वे अब श्रमण बन गये। पिता ऋषभदेव के चरण में जाने का विचार करने लगे, पर मन के किसी कोने से आवाज आई- वहाँ गया तो अपने से वय में छोटे, परन्तु दीक्षा वय में बड़े अपने भ्राताओं को वन्दन करना होगा।' मान-कषाय पर विजय प्राप्त न होने के कारण बढ़ते कदम मुड़ गये और एकांत शांत कानन की ओर चले, वहाँ जाकर हिमालय की भाँति अडोल, निश्चल, अटल ध्यान-मुद्रा में अवस्थित (खड़े) हो गये। पर उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई। बारह माह के दीर्घ काल तक एक मुद्रा में रहने से शरीर पर मिट्टी जम गई, लताएँ लिपट गईं, पक्षियों ने घोसलें बना लिए, पर सिद्धि प्राप्त नहीं हुई, क्योंकि मान-कषाय की शुद्धि नहीं हुई। ध्यानस्थ बाहुबली के कर्ण में ‘वीरा म्हारा गज थकी उतरो, गज चढ्या मुक्ति नहीं होसी २' आवाज आई। चिन्तन का प्रवाह चल पड़ा कि मैं मान रूपी गज पर चढ़ा हूँ, वे वास्तविकता को समझकर अहं भाव का प्रतिक्रमण करने लगे- मैं बाह्य राज-पाट छोड़कर संन्यस्त हो गया, लेकिन अन्तर्जगत् के राज्य रूपी मान को नहीं त्यागा। उनके इस आत्मशोधन ने अपने भीतर के अहं को नष्ट कर दिया। अशुभ भाव से शुभ भाव एवं तदनन्तर शुद्ध भावों की निर्मल धारा प्रवाहित हो उठी। नमन-वन्दन हेतु जैसे ही अपने कदम बढ़ाए उसी क्षण केवली अवस्था को प्राप्त हो गए- 'कदम बढ़ाता केवल पायो' । ३. माया प्रतिक्रमण से ऋजुता- जहाँ क्रोध और मान दोनों द्वेष के फल हैं, वहाँ माया और लोभ
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